tag:blogger.com,1999:blog-77047136136862300892024-03-19T09:13:51.258+05:30सुमित के तड़केदिल्ली पुलिस के युवा साहित्यकार सुमित प्रताप सिंह का ब्लॉग Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.comBlogger269125tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-73648691687829747662023-09-24T15:43:00.006+05:302023-09-24T20:58:44.167+05:30व्यंग्य: भक्षक बनाम रक्षक पुलिस<p style="text-align: justify;"><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWFQkvAkiv5iHl4JKGpRS6RtmLhZdpw9WydfUJrpOZZHoos5jRAgV6lSI06s7RIP-_iXsxgCDtrL7X-WAkMJBJpkxTxG8yfrQ3u0-ljkvQfjukENq9QJYme818wCc3HXgiPip8il1Xcbr9ycnhLfRxyyk-KSHJJsDfoziNoYq55sNsYd1X7eP2ChUswW4/s1599/IMG-20230924-WA0019-01.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1599" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWFQkvAkiv5iHl4JKGpRS6RtmLhZdpw9WydfUJrpOZZHoos5jRAgV6lSI06s7RIP-_iXsxgCDtrL7X-WAkMJBJpkxTxG8yfrQ3u0-ljkvQfjukENq9QJYme818wCc3HXgiPip8il1Xcbr9ycnhLfRxyyk-KSHJJsDfoziNoYq55sNsYd1X7eP2ChUswW4/s320/IMG-20230924-WA0019-01.jpeg" width="320" /></a></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><br /></b></div><p></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: large;"> मा</span></b><span style="font-size: medium;">र्केट में एक कथित जिम्मेदार माँ से जब अपने बच्चे की शरारतों का बोझ न संभाला गया, तो वह उस मार्केट में गश्त लगा रहे दो पुलिस वालों की ओर इशारा करते हुए अपने बच्चे से बोली। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">माँ – चुप हो जा शैतान वरना तुझे सज़ा दूँगी । उन पुलिस वालों से तुझे पकड़वा दूँगी । वे तुझको जेल में डाल कर खूब डंडे लगाएंगे। फिर तुझको अपनी माँ के ये बोल याद आएंगे। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">गश्त लगा रहे पुलिस वालों, जिनका नाम जिले और नफे था, ने जब ये सुना तो नफे बोला – ये महिला भी गजब ढाती है, बच्चे को हम जैसे सीधे-सादे पुलिस वालों से डराती है । </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">जिले – चलो मिलकर लेते हैं इस नारी की क्लास, ताकि भूल जाए करना ऐसी बकवास । </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">दोनों पुलिस वाले उस महिला और उसके बच्चे के पास टहलते हुए पहुंचते हैं । बच्चा उन दोनों को देखकर डर के मारे काँपने लगता है। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">नफे – मैडम, देश को भविष्य को क्यों बिना बात में डराती हैं? हम रक्षक पुलिस वालों को भक्षक क्यों बताती हैं? </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">जिले – आपको पता है कि कुछ दिनों पहले हुआ था एक प्रकरण, जिसमें एक बच्चे का कुछ शैतानों ने कर लिया था अपहरण।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">माँ – अच्छा ऐसा कैसे हुआ था? अपहरण के बाद उस बच्चे का क्या हुआ था? </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">नफे – उस बच्चे की माँ भी आप जैसी ही जिम्मेदार और भली थी । उसने भी अपने बच्चे को खिलाई पुलिस के डर की मोटी डली थी । </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">जिले – जब उस बच्चे का अपहरण करके कार में ले जाया जा रहा था, उस समय बगल से पुलिस वालों को कहीं इंतज़ाम देने के लिए ले जाया जा रहा था।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">माँ – फिर क्या हुआ?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> नफे – चूंकि उस बच्चे की माँ भी आप जैसी थी महान, इसलिए अपहरण करने वालों के काम में नहीं आया व्यवधान।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">माँ – मतलब?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">जिले – मतलब कि वह बच्चा पुलिस को देख कर बुरी तरह डर गया. और आपने शोले फिल्म में गब्बर सिंह वो का डायलॉग तो सुना ही होगा ‘जो डर गया सो....’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">माँ – नहीं नहीं अब आगे कुछ मत बोलिए। मेरी बेवकूफी को बेवकूफी मान कर ही छोड़िए। आगे से न होगा ऐसा गलत काम। बेटा, पुलिस वाले अंकलों को बोल राम-राम!</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">बच्चा – दोनों अंकल जी को राम-राम! </span></p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFGreM63kFlSORgqA89zq5ZEINtVQZwrohmovn1byu1zLQ8K29oUNIAsJrTqJdy5OVghx3NLgjrPksl8pGMYwknrgOZFU9uVX8fDOmZqIaCzpzqRRD4Zt78iHrOgNh0L3HkaKeExTq28GvlJjBgwj2lpy-EoBxRP7OAZm6f_7peBny0rZ7ZN6MwFlKrrQ/s1599/IMG-20230924-WA0009-01.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1599" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFGreM63kFlSORgqA89zq5ZEINtVQZwrohmovn1byu1zLQ8K29oUNIAsJrTqJdy5OVghx3NLgjrPksl8pGMYwknrgOZFU9uVX8fDOmZqIaCzpzqRRD4Zt78iHrOgNh0L3HkaKeExTq28GvlJjBgwj2lpy-EoBxRP7OAZm6f_7peBny0rZ7ZN6MwFlKrrQ/s320/IMG-20230924-WA0009-01.jpeg" width="320" /></a></div><span style="font-size: medium;"><br /></span><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">जिले और नफे – राम-राम! आगे से अपनी माँ की गलत बातों पर बिलकुल मत देना ध्यान।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">ये सुन कर बच्चा मुस्कुरा दिया। बच्चे की मुस्कराहट में माँ ने भी पूरा साथ दिया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">और इस तरह जिले-नफे की समझदारी से एक बच्चे का भविष्य अंधकार में जाने से बाल-बाल बच गया।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b>लेखक : सुमित प्रताप सिंह</b></span></p><p style="text-align: right;"><span style="font-size: xx-small;">Photo credits - Pradeep Yadav </span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-6042429273310891312023-09-16T10:43:00.003+05:302023-09-16T22:47:20.502+05:30व्यंग्य : उपयोगिता का दौर<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> </span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0h04apMZ7nxlqUMQMPTNMGDO1jfLGAOME1B36SXHjYLIoBPo7mSn__dKliKoEX98gCWnJhdt2glINYUipRyoNL6VwqluW9iEkI-VOVG6zOSkgTXpDmStcBgpAwpLXZjAJOX3H0m6F0vFC45e1kJCM_-7upybMt7A9vMttWqdfWPan8-qCZmcFzQNXRGc/s626/UpyogitaKaDaur%20.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="409" data-original-width="626" height="209" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0h04apMZ7nxlqUMQMPTNMGDO1jfLGAOME1B36SXHjYLIoBPo7mSn__dKliKoEX98gCWnJhdt2glINYUipRyoNL6VwqluW9iEkI-VOVG6zOSkgTXpDmStcBgpAwpLXZjAJOX3H0m6F0vFC45e1kJCM_-7upybMt7A9vMttWqdfWPan8-qCZmcFzQNXRGc/s320/UpyogitaKaDaur%20.jpg" width="320" /></a></span></div><span style="font-size: medium;"><br /></span><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> </span><b><span style="font-size: large;">आ</span></b><span style="font-size: medium;">ज का दौर उपयोगिता का दौर है। जब तक आप उपयोगिता की कसौटी पर खरे उतरते हैं आप सिरमौर हैं वरना किसी और का शुरू हो जाता दौर है। यूनानी विचारक प्लेटो के अनुसार एक गोबर से भरी टोकरी भी सुन्दर कही जा सकती, यदि वह उपयोगिता रखती है। इसलिए इस संसार में जीने के लिए आपको अपनी उपयोगिता समाज के समक्ष सिद्ध करनी ही पड़ेगी। यदि आपमें उपयोगिता का अभाव है, तो फिर आपको समाज में नहीं मिलना भाव है। अब आपके मस्तिष्क में ये प्रश्न कौंधेगा, कि इस ससुरी उपयोगिता का मानक भला है क्या? इस प्रश्न का बड़ा सरल सा उत्तर है, कि जब तक आप दूसरों के काम आ सकते हैं या उनकी सुख-सुविधा को बनाए रखने में सहयोगी बने रहने की योग्यता रखते हैं तब तक आपका सम्मान है। जिस दिन आपकी उपयोगिता समाप्त हुई उसी दिन आपको समाज के उपयोगिता प्रेमी जीवों का अंतिम प्रणाम है। एक छात्र को ही ले लीजिए। वह बेचारा दिन-रात परिश्रम करते हुए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता है। उसे आरंभ में कई प्रतियोगी परीक्षाओं में असफलता का सामना करना पड़ता है। इन असफलताओं के दौर में वह समाज के लिए अनुपयोगी जीव होता है। उससे बात करना तो दूर उसे आजू-बाजू भी भटकने नहीं दिया जाता तथा साथ में उसे ताने मार-मार कर उसका जीवन दुष्कर कर दिया जाता है। जैसे ही उस छात्र का भाग्य करवट लेता है और वह किसी प्रतियोगी परीक्षा को उत्तीर्ण कर लेता है, तो उससे अनुपयोगी का पदक वापिस लेकर उसके सिर पर उपयोगिता का मुकुट सम्मान सहित धर दिया जाता है। अब अपनी हिन्दी भाषा की बात करें तो कुछ लोग हिन्दी के बल पर ही कमाएंगे और खाएंगे, किन्तु जब सम्मान देने का समय आएगा तो अंग्रेजी में बड़बड़ाते हुए अंग्रेजी के ही गुण जाएंगे। ऐसी दोहरी मानसिकता वाले जीवों के लिए जब तक हिंदी की उपयोगिता है, तभी तक वे उसके साथ रहते हैं। ऐसे जीवों के लिए हिंदी की उपयोगिता हिंदी पखवाड़े के बीच ही सर्वाधिक होती है। हिंदी पखवाड़े में ये जीव हिंदी के काँधे पर सवार हो हिंदी को समर्पित कार्यक्रमों में मंच पर विराजमान होने का सुख प्राप्त करेंगे, मानदेय राशि से भरे लिफाफे और हिंदी सेवी सम्मान व पुरस्कार बटोरेंगे, किंतु जैसे ही हिंदी पखवाड़ा समाप्त होगा ये जीव पखवाड़े के बीच मिली सुख-सुविधा को उपलब्ध करवाने वाले भले मानवों को थैंक यू वैरी मच का संदेश भेज कर पुनः अंग्रेजी के चरणों में लौटना आरंभ कर देंगे। वैसे इसमें इनका दोष नहीं है क्योंकि ये दौर ही उपयोगिता का है न कि अनुपयोगिता का। है कि नहीं?</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b>लेखक : सुमित प्रताप सिंह</b></span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">रचना तिथि - १४ सितंबर, २०२३</span></p><p style="text-align: right;"><span style="font-size: xx-small;">चित्र गूगल से साभार </span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-60961067962539322592023-09-09T19:50:00.000+05:302023-09-09T19:49:06.819+05:30जी-20 आला रे<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcAoZtjsAfy5vShGQ8fQXbmxH_duY1zi_C3KgIBmEQ18a5MMOZ9O05tW_e3XHwEA8cA0j77iLjixCYr0JfxQGrV5pTcnAP_yUD65IUS_wdqPAJ9IPqVTrlvAkUl4VSOIFthLBIzqhuuvU6AmMD2HOB4pDPjcMvZkAqBKZ9S-hkqVnVk6cSkqKlC-WvAZY/s338/20230909_005149.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="338" data-original-width="338" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcAoZtjsAfy5vShGQ8fQXbmxH_duY1zi_C3KgIBmEQ18a5MMOZ9O05tW_e3XHwEA8cA0j77iLjixCYr0JfxQGrV5pTcnAP_yUD65IUS_wdqPAJ9IPqVTrlvAkUl4VSOIFthLBIzqhuuvU6AmMD2HOB4pDPjcMvZkAqBKZ9S-hkqVnVk6cSkqKlC-WvAZY/s320/20230909_005149.jpg" width="320" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <b>रा</b>जधानी दिल्ली और एनसीआर में उत्सव का माहौल है। जी-20 शिखर सम्मेलन के आयोजन के उपलक्ष में दिल्ली एनसीआर दुल्हन की भांति सज चुके हैं। कूड़ा-करकट और गंदगी बहुत उदास हैं। उन बेचारों को उठा-उठा कर आयोजन स्थल से दूर ले जाकर पटका जा रहा है। गली-मोहल्ले और सड़कें चमचमा रहे हैं। कुरूपता अचानक से जाने कहां लापता हो गयी है। चहुं ओर उत्सव का माहौल है। ऐसा लगता है कि जैसे हर कोई गा रहा हो जी-20 आला रे। अभावों में भी सुखद स्वप्नों के सहारे जीने वाले देश को आस है, कि जी-20 शिखर सम्मेलन उनके भविष्य को स्वर्णिम बनाएगा। जी -20 आला रे गीत का गायन करते हुए जी-20 शिखर सम्मेलन को सफल बनाने के लिए सभी देशवासी पूरे जी-जान से जुटे हुए हैं। देश की राजधानी के चप्पे-चप्पे में और इसकी सीमाओं पर सुरक्षा के लिए तैनात जवान अन्य एजेंसियों संग इस प्रयास में है कि ये आयोजन सफल हो जाए। विश्व बंधुत्व की ओर भारत को अग्रसर करने के लिए लोग कष्टों को सुख मान कर हर्षित व गर्वित हैं। राजधानी दिल्ली व एनसीआर लीप-पोत कर सजाए गए अपने आकर्षक रूप को लोगों के नैनों के दर्पण में निहारते हुए इस असमंजस में हैं कि वे इस पर इतराएं, इठलाएं या फिर से अपने पूर्व रुप में आने के लिए समय काटते जाएं। विदेशी मेहमानों के आगमन से उल्लास से भरी ये धरती विश्व बंधुत्व व प्रगति के स्वप्नों को साकार करने के लिए अत्यधिक उत्साहित है। अब जाने ये स्वप्न साकार होंगे या फिर बाहर से आया कोई बहुरूपिया अपने चेहरे पर बंधुत्व का मुलम्मा चढ़ा कर इस बंधुत्व को तार-तार करने के अपने कुत्सित उद्देश्य को पूर्ण कर लौट जाएगा। बहरहाल इस आयोजन को सफल बनाने के लिए कई रातों की नींद की बलि दे चुकीं आँखें मिलकर इसकी सफलता की आस के साथ निरंतर गुनगुना रही हैं जी-20 आला रे।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b>लेखक : सुमित प्रताप सिंह</b></span></p><p style="text-align: right;">चित्र गूगल से साभार </p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-51682838444332675342023-09-02T23:28:00.005+05:302023-09-02T23:30:59.875+05:30दंगे के बाद <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHVJG9B-6kx4nLSe15mgRDj70lP2hsB9vx4A_Abu9glVmw2BpPiCobw51DgVALRg9Jy0-jT4vUMAZ4vxzM667-Dk4szevycd-aSmiqLRxFWo2CHCD33qfzf8kvQXKyBf5iQXg-VLqdfCkC8qI6enaCRxnz0NCmt_3MaGUMzZfKk_K7k6fZZXMOAWz3TeI/s1200/%E0%A4%A6%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6%20.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1200" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHVJG9B-6kx4nLSe15mgRDj70lP2hsB9vx4A_Abu9glVmw2BpPiCobw51DgVALRg9Jy0-jT4vUMAZ4vxzM667-Dk4szevycd-aSmiqLRxFWo2CHCD33qfzf8kvQXKyBf5iQXg-VLqdfCkC8qI6enaCRxnz0NCmt_3MaGUMzZfKk_K7k6fZZXMOAWz3TeI/s320/%E0%A4%A6%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6%20.jpg" width="320" /></a></div><span style="font-size: medium;"><br /></span><p></p><p><span style="font-size: medium;"> </span><b><span style="font-size: large;"> दो</span></b><span style="font-size: medium;">नों समुदायों की भीड़ आमने-सामने खड़ी हो एक-दूसरे का खून बहाने को तैयार थी। उन्माद में कमी न आए इसलिए समय-समय पर दोनों पक्षों का नेतृत्व कर रहे नेता धार्मिक नारे लगाकर अपने-अपने धर्म की खातिर मर-मिटने के लिए उन्मादी भीड़ को दुष्प्रेरित कर रहे थे। दोनों समुदायों के बीच बेचारा भाईचारा धरती पर लहूलुहान हो दर्द से बुरी तरह कराह रहा था। उसके बगल में ज़मीन पर पड़ी गंगा-जमुनी तहजीब भी लुटी-पिटी हालत में आंसू बहा रही थी। ये सब देखकर मियाँ दंगे लाल मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। भाईचारे ने ये जानते हुए भी कि उसका चारा बनना तय है उन्मादी भीड़ से पूछा - आप सभी क्यों एक दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हो?</span></p><p><span style="font-size: medium;">भाइचारे के सवाल के जवाब में एक तरफ से आवाज आई मज़हब की खातिर और दूसरी ओर ध्वनि गूंजी धर्म की रक्षा के लिए।</span></p><p><span style="font-size: medium;">गंगा-जमुनी तहजीब ने उन्हें समझाया - ये सब करने से तुम सबको सिवाय खून-खराबे के कुछ हासिल नहीं होनेवाला है।</span></p><p><span style="font-size: medium;">मजहब की राह में में क़ुर्बान होने से हमें शहादत मिलेगी। एक तरफ से कोई उन्मादी चिलाया। हां हां धर्म के लिए मर-मिटने से हम धर्मयोद्धा कहलाएंगे। दूसरी ओर से कोई अन्य उन्मादी हुंकारा।</span></p><p><span style="font-size: medium;">भाईचारा गुस्से में चीखा - किसी को कुछ नहीं मिलना। दंगे के बाद या तो तुम सबकी लाशों को चील-कुत्ते खायेंगे या फिर तुम सब सालोंसाल जेल में पड़े हुए अपनी-अपनी जमानत होने का इंतज़ार करते रहोगे।</span></p><p><span style="font-size: medium;">ये सुनकर दोनों ओर की उन्मादी भीड़ ठिठक गई। मजहब के ठेकेदारों ने मामला बिगड़ते देख मज़हबी नारे लगाने शुरू कर दिए। भीड़ के मन-मस्तिष्क में भीतर ठिठक कर रुका उन्माद फिर से सिर उठा कर खड़ा हो गया। </span></p><p><span style="font-size: medium;">मियाँ दंगे लाल ने ये नज़ारा देखकर एक खूंखार ठहाका लगाया।</span></p><p><span style="font-size: medium;">तभी गंगा-जमुनी तहजीब कोशिश करके उठी और बोली - अरे बेवकूफों, जिनके बहकावे में आकर तुम सभी अपना और अपने बच्चों का जीवन बर्बाद करने जा रहे हो कभी उनसे इस बारे में पूछा है, कि उनके खुद के बच्चे तो विदेश में पढ़-लिखकर अपना भविष्य बना रहे हैं और वे तुम सबको आपस में भिड़वा कर तुम्हारा और तुम्हारे बच्चों का भविष्य खराब करवाने जा रहे हैं।</span></p><p><span style="font-size: medium;">गंगा-जमुनी तहजीब की बात पर जहां मजहबी ठेकेदार बगलें झांकने लगे, वहीं भीड़ के मन-मस्तिष्क में तन कर खड़ा हुआ उन्माद अचानक ढीला पड़ कर बैठ गया।</span></p><p><span style="font-size: medium;">भाईचारे ने गंगा जमुनी तहजीब की बात को आगे बढ़ाया - हां हां इन धर्म के ठेकेदारों से कहो कि ये अपने बच्चों को विदेश से बुलाकर भीड़ का नेतृत्व करने को कहें।</span></p><p><span style="font-size: medium;">ये सुनते ही दोनों ओर की भीड़ का उन्माद धाराशाही हो गया। ये देखकर मियाँ दंगे लाल भी अपने सिर पर पांव रखकर वहां से भाग लिए।</span></p><p style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">लेखक : सुमित प्रताप सिंह</span></b></p><p style="text-align: right;"><span style="font-size: xx-small;">चित्र गूगल से साभार</span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-58978687203294643362023-08-26T20:19:00.005+05:302023-08-26T20:22:28.946+05:30चंदा मामा बस एक टूर के<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidZUqg1w5aAF44l_QJg9VHbCgvi_rv7RkUHnJTnzxEFNIO5mpkTbQt77-7_z4DeQ4KwczM66DeS-QFotzNQIefjhkHRnq0NQYWWulewVUZTl4dE6-qaDD2ohTO7DBpGLV6W8G03YbMMcjloGIrRmaNFmKUjgjMEwZjSwl0W1R9-VYZsJPXU5Y5UMviPoQ/s1920/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%BE%20%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%AC%E0%A4%B8%20%E0%A4%8F%E0%A4%95%20%E0%A4%9F%E0%A5%82%E0%A4%B0%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1920" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidZUqg1w5aAF44l_QJg9VHbCgvi_rv7RkUHnJTnzxEFNIO5mpkTbQt77-7_z4DeQ4KwczM66DeS-QFotzNQIefjhkHRnq0NQYWWulewVUZTl4dE6-qaDD2ohTO7DBpGLV6W8G03YbMMcjloGIrRmaNFmKUjgjMEwZjSwl0W1R9-VYZsJPXU5Y5UMviPoQ/w400-h225/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%BE%20%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%AC%E0%A4%B8%20%E0%A4%8F%E0%A4%95%20%E0%A4%9F%E0%A5%82%E0%A4%B0%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20.jpg" width="400" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;"> </span><span style="font-size: large;">चं</span></b><span style="font-size: medium;">दा मामा आँखें बंद किए हुए कुछ गुनगुना रहे थे, कि तभी उन्हें आभास हुआ, कि उनके दक्षिणी ध्रुव पर कोई धीमे से उतरा है। एक बार को तो उन्होंने विचार किया कि यह उनका भ्रम है, लेकिन तभी वंदे मातरम और जय हिंद की गूंजती ध्वनियों ने इस बात की पुष्टि कर दी कि कोई न कोई तो उनसे मिलने आया है। उन्होंने फिर गुनगुनाना आरंभ कर दिया - लो आ गया दीवाना कोई, गाने को तराना हिंद का। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंद्रयान-3 ने चंदा मामा को अपना परिचय देते हुए कहा - चंदा मामा, मैं चंद्रयान-3 हूँ। मैं हिंदुस्तान से आया हूँ। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंदा मामा ने तंज कसा - कमाल है जिस देश में जाति, समुदाय और धर्म की राजनीति से ही लोगों को समय नहीं मिल पाता। दूसरे के महापुरुषों और योद्धाओं का अपरहण कर अपनी जाति का ठप्पा लगाने में व्यस्त रहने वाले देश को भला इतनी फुर्सत कैसे मिल गयी जो तुम्हें यहाँ भेज दिया। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> चंद्रयान-3 ने हँसते हुए कहा - चंदा मामा, जिसकी जैसी प्रवृत्ति होगी, वह वैसा व्यवहार तो करेगा ही है। हिंदुस्तान में ऐसे धूर्त और मूर्ख लोगों के बजाय उन लोगों की संख्या अधिक है जिनकी प्रवृति है अपने देश के नाम और सम्मान को लगातार ऊंचा उठाने की कोशिश करते रहना। आज मेरा आपसे मिलना उसी कोशिश का ही सुखद परिणाम है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंदा मामा ये सुनकर खुश हो गए - ये तो बहुत अच्छी बात है। अच्छा ये बताओ भांजे कि हिंदुस्तान से मेरे लिए क्या उपहार लेकर आए हो?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंद्रयान-3 ने अपनी जेब से राखी निकाली और चंदा मामा को सौंपते हुए कहा - चंदा मामा, आपके लिए उपहार तो देशवासियों ने ढेर सारे सौंपे थे, लेकिन इस राखी के प्रेम का भार इतना अधिक हो गया था कि उन सभी उपहारों को साथ न ला पाया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंदा मामा भावुक होते हुए बोले - इससे बड़ा और कीमती उपहार तो कोई हो भी नहीं सकता। अच्छा अब ये बताओ कि हिंदुस्तान में अभी भी मेरे लिए कविता या गीत गाते हैं कि नहीं?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">ये पूछ कर उन्होंने चंदा मामा दूर के' कविता को गुनगुनाना आरंभ कर दिया। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंद्रयान-3 मुस्कुराते हुए बोला - चंदा मामा, इन दिनों हिंदुस्तान में कविता या गीत के बजाय ऑनलाइन नाचने का चलन चल पड़ा है। लोग अपनी बहू-बेटियों को सोशल मीडिया पर बेशर्मी से दिन-रात नचवा रहे हैं और खुद भी उनके साथ ठुमके लगा रहे हैं। लाज और मर्यादा को उन्होंने खूँटी पर टांग दिया है। हालाँकि आपके चाहने वाले अभी भी आपको कविताओं और गीतों में जीवित रखे हुए हैं। पर..।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंदा मामा ने पूछा - पर क्या?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंद्रयान-3 ने बताया - पर आपकी प्रिय कविता में थोड़ा सा बदलाव आ गया है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंदा मामा - कैसा बदलाव?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">चंद्रयान-3 ने हँसते हुए बताया - कविता में अब चंदा मामा दूर के नहीं बल्कि बस एक टूर के हो गए हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> ये सुनते ही चंदा मामा खिलखिला कर हँसने लगे। चंद्रयान-3 ने तिरंगा झंडा निकाल कर चंदा मामा के ऊपर फहरा दिया। ये देख मन ही मन जल रहे देश के दुश्मनों के सीनों को अंतरिक्ष से टूट कर गिरते धूमकेतुओं ने धरती के बजाय उन पर ही गिर कर उन्हें जला कर पूरी तरह खाक कर दिया।</span></p><p style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">लेखक: सुमित प्रताप सिंह</span></b></p><p style="text-align: right;"><span style="font-size: xx-small;">कार्टून गूगल से साभार </span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-45462616826496887612023-08-19T19:44:00.000+05:302023-08-19T19:45:24.079+05:30हैडपंप का पाकिस्तान को खत<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqe5z_TsK-HOY_yvdA7QbtQxW1JR-DAa4HoYquud9qG4OejX8pY7zVpMwJQix1vcUPwbUHu155nGJy_sRWtEbwa4izJAE783iIPKQW1FskIMDhxsyUXq-Ag2-_1dQo2gaLWAv5-ZKJIk17nVgI7eQLXgxFSRm_yWmyDFZDcUcGPjZLeU-DmAtfvD1cxN4/s386/HandPump%20.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="386" data-original-width="309" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqe5z_TsK-HOY_yvdA7QbtQxW1JR-DAa4HoYquud9qG4OejX8pY7zVpMwJQix1vcUPwbUHu155nGJy_sRWtEbwa4izJAE783iIPKQW1FskIMDhxsyUXq-Ag2-_1dQo2gaLWAv5-ZKJIk17nVgI7eQLXgxFSRm_yWmyDFZDcUcGPjZLeU-DmAtfvD1cxN4/s320/HandPump%20.jpg" width="256" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> </span><b><span style="font-size: large;">पा</span></b><span style="font-size: medium;">किस्तान में दूसरी बार गदर मचने के बाद बुरी तरह घायल हुए हैंडपंप ने अपनी सरकार को खत लिखा है। जिसमें उसने मांग की है कि अब उसे जमीन से पानी निकालने के काम से वॉलंटरी रिटायरमेंट स्कीम के तहत रिटायर कर दिया जाए और उसके बेटे टोंटी वाले नल को मुल्क की खिदमत करने का मौका दिया जाए। उसने इसकी वजह बताते हुए कहा है कि वह खुद की जमीन उखाडू बेइज्जती से बहुत ज्यादा दुःखी हो चुका है। हर बार सरहद पार से कोई तारा सिंह आता है और उसका सितारा गर्दिश में डाल देता है। पाकिस्तान की फ़ौज और पुलिस देखती रह जाती है और वह उस हैडपंप को उखाड़ कर उसके जरिए उसके मुल्क के लोगों का बुरी तरह बैंड बजवा कर अपने बीबी-बच्चों के साथ वापिस अपने मुल्क़ को लौट जाता है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> आखिरकार वह कब तक पड़ोसी मुल्क के उस खूंखार इंसान के हाथों खुद की, अपने मुल्क की और अपने मुल्क के लोगों की हर बार होने वाली बुरी हालत और बेइज्जती को बर्दाश्त करता रहेगा। उसने आगे समझाते हुए कहा है कि पिछली बार गदर में सिर्फ अपने मुल्क के लोग परेशान थे पर पड़ोसी मुल्क के लोगों ने खूब जमकर मजा लिया था। लेकिन इस बार तो पड़ोसी मुल्क भी हमारे साथ-साथ रो रहा है। दूसरे गदर में सकीना की ओवरएक्टिंग और हद से ज्यादा रोने-धोने ने उसके लोगों के दिलोदिमाग में सिनेमा से ऊब पैदा कर दी है। वे बेचारे तारा सिंह के गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने से अपने कान के परदे फटने की चिंता से बेहद घबराए हुए हैं। उस ओर के वीआरएस ले चुके हैंडपंपों ने दुत्कारते हुए पैगाम भेजा है, कि अपने देश से कहो कि बेशक अपने आकाओं से थोड़ी और भीख मांगनी पड़े पर अब अपने देश के हैंडपंपों को वीआरएस देकर विश्राम करने और टोंटी वाले नलों को काम पर लगाने का आदेश जारी कर दे वरना तीसरा गदर आएगा और तुम्हारे देश की बत्ती गुल करके चला जायेगा। बाकी कुछ बचेगा तो हमारे देशवासियों द्वारा दिया गया श्राप तुम्हारा तिया-पांचा कर देगा। तुम्हारे देश के हठ के कारण हमारे देशवासी तीसरी बार गदर देखने को विवश होंगे। कहीं ऐसा न हो कि पूरा भारत क्रोध में आकर तुम्हारे देश के सारे हैंडपंपों को उखाड़ कर तुम्हारा ढंग से बैंड बजा डाले। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> बेचारे हैडपंप ने पाकिस्तान सरकार को आगे समझाते हुए लिखा है, कि उसे वीआरएस देने से मुल्क का आने वाला कल महफूज़ रहेगा और इस बहाने उसके बेटे टोंटी वाले नल को भी रोजगार मिल जायेगा, जिससे कि वह आवारागर्दी छोड़ कर अपने मुल्क़ की तरक्की और बेहतरी में कुछ न कुछ मदद कर पायेगा । इससे ये फायदा होगा कि तारा सिंह को जब पाकिस्तान के हैंडपंपों को वीआरएस दिए जाने का पता चलेगा, तो शायद वह हमसे भी तबाह और पिछड़े किसी और मुल्क में अपने हैडपंप उखाड़ने के शौक को पूरा करने के लिए चल पड़े और बॉलीवुड के जरिए पाकिस्तान की दुनिया भर में बार-बार, लगातार होने वाली बेइज्जती का सिलसिला खत्म हो जाए।</span></p><p style="text-align: center;"><b><a href="https://www.facebook.com/authorspsingh" target="_blank"><span style="font-size: medium;">लेखक: सुमित प्रताप सिंह</span></a></b></p><p style="text-align: right;"><span style="font-size: xx-small;">कार्टून गूगल से साभार</span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-81379674070437999402023-08-04T20:19:00.004+05:302023-08-06T11:57:59.402+05:30मौजमस्ती दर्शन<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br /></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"> <b>प्रा</b>चीन काल में चार्वाक नाम के एक ऋषि हुए थे। उन्होंने अपने चावार्क दर्शन में कहा है ‘यावद् जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋण कृत्वा, घृतं पीवेत्’। आधुनिक काल में हमें भी उनकी विचारधारा 'जब तक जिओ सुख से जिओ, उधार लो और घी पिओ।' को चरितार्थ करनेवाले कई ऋषियों की प्राप्ति हुई है। ऐसे ऋषि राजनीति में भी अपनी गहरी पैठ जमाये हुए हैं और देश के विभिन्न प्रदेशों की सत्ता में जमे हुए अपनी हर नाकामी के लिए दूसरों को दोषी सिद्ध करने के खेल में महारत हासिल कर चुके हैं। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> जैसे कि हर विभाग में दो प्रकार के जीव होते हैं। इनमें पहले प्रकार के जीव अपने विभागीय कार्य को बड़े ही परिश्रम से करते हुए अपने काम से काम रखने के आदी होते हैं, वहीं दूसरे प्रकार के जीव कुछ भी करने के बजाय इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बड़े अधिकारियों की चमचागीरी और उनके कान फूँककर ही अपने कार्यालय के अनमोल समय को व्यतीत करते हैं। अब न जाने विभाग के ये उछल-कूद मचाऊ कर्मचारी इन राजनीतिक ऋषिओं से प्रभावित हैं या फिर राजनीतिक ऋषि महाराज स्वयं इन कर्मचारियों से प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> इन राजनीतिक ऋषियों ने ऋषि चावार्क के सुविधावादी विचारों से प्रेरणा लेकर कलियुग में 'मौजमस्ती दर्शन' का सृजन कर लिया है। वैसे तो आधुनिक पीढ़ी पर अक्सर ये आरोप लगाया जाता है, कि वो अपनी प्राचीन परंपराओं से कटती जा रही है, लेकिन आधुनिक युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि राजनीतिक ऋषियों ने अपनी इस प्राचीन चार्वाकी परंपरा का मान रखते हुए उपरोक्त दर्शन के माध्यम से इस अद्भुत प्राचीन संस्कार को जीवन प्रदान किया है। हो सकता है कि आनेवाले समय वे अपने इस दर्शन का थीम सॉन्ग 'मस्तराम मस्ती में, आग लगे बस्ती में' को ही बना लें।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> बहरहाल ये सभी राजनीतिक ऋषि सत्ता का सदुपयोग करते हुए ‘मौजमस्ती दर्शन’ को चरितार्थ करते हुए हजारों की मदिरा एक दिन में ही डकार जाते हैं। बेशक चाहे इनके प्रतिनिधि क्षेत्र में बच्चियाँ भूख से बिलबिला कर अपने प्राण त्याग दें पर ये राजनीतिक ऋषि छप्पन भोग लगाना और उन भोगों को बिना डकार लिए हजम कर जाना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। इनका मानना है कि छोटी-मोटी बातों अथवा घटनाओं से ‘मौजमस्ती दर्शन, पर बिलकुल भी आँच नहीं आनी चाहिए। ऋषि चार्वाक भी स्वर्ग में अपने साथियों से उधार लेकर घृतपान करते हुए वहाँ से अपने कलियुगी शिष्यों और उनके अद्भुत कार्यों को देखकर धन्य होते हुए मंद-मंद मुस्कुराते रहते हैं।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b><a href="https://www.facebook.com/authorspsingh?mibextid=ZbWKwL" target="_blank">लेखक : सुमित प्रताप सिंह</a></b></span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-69806016152348943262023-07-29T20:47:00.006+05:302023-07-29T20:55:03.120+05:30अंतराष्ट्रीय कवि का त्यागपत्र<p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> </span><span style="font-size: large; font-weight: bold;">क</span><span style="font-size: medium;">वि लिक्खड़ लाल ने अचानक अपने सोशल मीडिया के बायोडाटा में स्वयं को राष्ट्रीय से अंतराष्ट्रीय कवि अपडेट कर दिया। उनके अंतराष्ट्रीय कवि के रूप में अपडेट होते ही उनके चेलों ने अपने गुरु की प्रशंसा के पुल बाँधते हुए सोशल मीडिया पर पोस्टों की बाढ़ ला दी। अब कवि लिक्खड़ लाल के चेले भी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय कवि बनने के दिवास्वप्न देखने लगे। कवि लिक्खड़ लाल का कविता की चेरी तुकबंदी के संग सफर दो-चार साल पहले ही शुरू हुआ था। उन्होंने तुकबंदी को ही कविता माना और स्वयं को तुकबंद के बजाय कवि। जहाँ उनकी आयु के साथी नौकरी पेशा होकर अपने बाल-बच्चों पढ़ा-लिखा कर सक्षम बनाने के लिए संघर्षरत थे, वहीं लिक्खड़ लाल ने मलूकदास कवि के अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए सबके दाता राम।। नामक दोहे को गाँठ बाँध कर उसी का अनुसरण करने की भीष्म प्रतिज्ञा कर चुके थे। उनके बुजुर्ग माँ-बाप ने उन्हें अनगिनत बार गरियाया और उनकी पत्नी ने उन्हें सुबह-शाम, दिन-रात ताने दे-देकर समझाने की भरकश कोशिश की, लेकिन उनके कान पर जूं नहीं रेंगा। आखिरकार एक दिन थकहार कर उनकी पत्नी ने घर का चूल्हा ठंडा न होने के लिए प्राइवेट नौकरी पकड़ ली। अब बेचारी पत्नी घर और नौकरी की चक्की में दिन-रात पिसती रहती और कवि लिक्खड़ लाल तुकबंदियों के झूले में आनंद से झूला झूलते रहते। अपने आस-पास के लोगों को अपनी तुकबंदियों से धराशाही करने के बाद एक दिन उनका पदार्पण सोशल मीडिया पर हो गया। दरअसल उनके शहर में रहने वाले उनकी तुकबंदियों से दुखी जीवों ने अपने-अपने मस्तिष्क और कानों को उनकी तुकबंदियों के अत्याचार से बचाने के लिए एक दिन चंदा करके एक एंड्राइड फोन ख़रीदा और एक तकनीक बुध्दि से दक्ष युवा ने उस फोन का सदुपयोग कर कवि लिक्खड़ लाल का एक सोशल मीडिया अकाउंट बनाया और उन्हें सोशल मीडिया पर उनकी तुकबंदियों की पताका फहराने के लिए छोड़ दिया। सोशल मीडिया पर कुछ दिन अपनी तुकबंदियों के साथ चहलकदमी करने के बाद उन्होंने स्वयं को राष्ट्रीय कवि घोषित कर दिया। धीमे-धीमे कवि लिक्खड़ लाल को सोशल मीडिया पर ऐसे-ऐसे लिक्खड़ों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिन्होंने बिना-बात के निरंतर लिखकर और अपने लिखे को नियमित रूप से पुस्तक के रूप में छपवा कर जाने कितने हरे-भरे पेड़ों की हत्या करने का पुण्य अर्जित किया था। उन लिक्खड़ों में कुछ कवि लिक्खड़ लाल के गुरु बने तो कुछ ने उनकी शिष्यता स्वीकार कर ली। अब सभी लिक्खड़ मिलकर सोशल मीडिया पर कविता का नाम देकर तुकबंदियों को पेलते रहते, जिसे देखकर बेचारी कविता मन मसोसकर सुबकते हुए आँसू बहाती रहती। धीमे-धीमे कवि लिक्खड़ लाल ने विदेश में बसे लिक्खड़ों से संपर्क स्थापित कर लिया। कुछ वर्षों की ऑनलाइन चमचागीरी के फलस्वरूप एक दिन विदेश में बसे कवि महालिक्खड़ लाल के निमंत्रण पर कवि लिक्खड़ लाल ने वैश्विक ऑनलाइन काव्य गोष्ठी में विश्व भर के चुने हुए लिक्खड़ों के बीच अपनी तुकबंदियों को सुना-सुना कर सोशल मीडिया पर भूचाल ला दिया। इस ऑनलाइन काव्य गोष्ठी के बाद कवि लिक्खड़ लाल ने स्वयं को राष्ट्रीय से अंतराष्ट्रीय कवि के रूप में अपडेट कर दिया। उनके राष्ट्रीय से अंतराष्ट्रीय कवि होने की बात उनके पड़ोसी शहर में रहने वाले दूसरे लिक्खड़ कवि से बर्दाश्त न हुई और उसने लिक्खड़ लाल के अंतराष्ट्रीय कवि होने पर तंज कस दिया। उस तंज से कवि लिक्खड़ लाल ने तुकबंदी कर एक कथित कविता को रचा और पड़ोसी शहर के लिक्खड़ कवि को टैग करके सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया। कवि लिक्खड़ लाल के चेलों ने उस पोस्ट पर कमेंट के रूप में माँ-बहन के सम्मान को समर्पित एक से बढ़कर एक गालियों की लाइन लगा दी। अपने सुसंस्कृत चेलों के संस्कारपूर्ण कमेंटों पर लव रिएक्शन देते हुए कवि लिक्खड़ लाल गौरवान्वित होने लगे। तभी उन्हें स्वयं को किसी पोस्ट में टैग होने की नोटिफिकेशन मिली। जब टैग की गयी पोस्ट पर जाकर उन्होंने देखा तो उनके होश उड़ गए। वो पोस्ट उनके प्रतिद्वंदी लिक्खड़ कवि थी। उस पोस्ट में वह अपने पहलवान साथियों के साथ लाइव होकर कवि लिक्खड़ लाल का तिया-पाँचा करने की धमकी देते हुए उनके घर की ओर प्रस्थान कर चुका था। ये देखते ही कवि लिक्खड़ लाल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। उन्होंने आनन्-फानन में अंतराष्ट्रीय कवि की पदवी को त्यागने की घोषणा करते हुए एक पत्र लिखा और उसे पडोसी शहर के लिक्खड़ कवि को क्षमा याचना के साथ टैग कर अपने सोशल मीडिया अकॉउंट पर पोस्ट कर दिया और अपने शहर से तड़ीपार हो गए। पड़ोसी शहर के लिक्खड़ कवि ने कवि लिक्खड़ लाल के त्यागपत्र को सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। आजकल पड़ोसी शहर का लिक्खड़ कवि अंतराष्ट्रीय कवि की पदवी धारण कर चुका है। कवि लिक्खड़ लाल के चेलों ने भी अपनी निष्ठा का मुख पड़ोसी शहर के लिक्खड़ कवि की ओर मोड़ कर उसकी शिष्यता ग्रहण कर ली है। ये सब देखकर कवि लिक्खड़ लाल अपने फर्जी सोशल मीडिया अकाउंट पर बैठे-बैठे आँसू बहाते रहते हैं और उनकी तुकबंदियाँ उनकी फिरकी लेती रहती हैं।</span></p><p style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">लेखक: सुमित प्रताप सिंह</span></b></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-7152587759470865342023-07-23T00:01:00.001+05:302023-07-23T00:01:00.128+05:30पबजी वाला प्यार <div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> </span><span style="font-size: large;"><b>स</b></span><span style="font-size: large;">मय के साथ-साथ प्यार करने के अंदाज ने भी काफी प्रगति कर ली है। अब पेड़ों के इर्द-गिर्द घूमते हुए प्यार का इजहार करने वाला दौर नहीं रहा और न ही अब अपने प्यार को जताने के लिए सालों-साल तक अपने प्रेमी या प्रेमिका के गली-मोहल्ले या कूचे में भटकते रहने का समय रहा। अब तो पबजी वाले प्यार का ज़माना आ गया है। पबजी पर ऑनलाइन खेल खेलते हुए कब खेल-खेल में प्यार हो जाए पता ही नहीं चल पाता है। प्यार भी ऐसा होता है कि उसकी बाधा बनने वाली देश की सीमाएं भी तोड़ दी जाती हैं। हालांकि पुराने वाले प्यार की तरह पबजी वाला प्यार भी जाति, धर्म या समुदाय को स्वीकार नहीं करता, लेकिन इस नए-नवेले प्यार के रुप ने प्यार के लिए हर उल्टा-सीधा उपाय आजमाने की नीति अपनाई है। इश्क़ और जंग में सब जायज़ है मुहावरे को सही मायने में चरितार्थ इस पबजी वाले प्यार ने ही किया है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> कई साल पहले एक फिल्म आई थी जिसमें नायक अपनी प्रेमिका को वापिस अपने देश में लाने के लिए पड़ोसी देश में जाकर प्यार के दुश्मनों से भिड़ जाता है और यहां तक कि गुस्से में उनका हैंडपंप तक उखाड़ डालता है। इधर मामला दूसरे टाइप का है। पबजी वाले प्यार में किसी से भिड़ने के बजाय खेल-खेल में बड़ा लंबा खेल खेलते हुए ऑफलाइन प्रेमी को दुलत्ती जड़कर और उसका सबकुछ बेचकर ऑनलाइन प्रेमी से प्यार की पींगें बढ़ाने के लिए रफूचक्कर हो प्रेमिका द्वारा पड़ोसी देश में अपने प्रेमी के यहां पहुंचने का शातिर खेल खेला जाता है। इस शातिर खेल को देखकर पड़ोसी देश का मीडिया और जन परेशान नहीं होते, बल्कि इसमें अपना गौरव और जीत का अनुभव करते हैं। मजे की बात ये है कि कुछ साल पहले जिस देश में पबजी खेल को प्रतिबंधित कर दिया गया था, उस देश में पबजी वाला प्यार कुलांचें भर रहा है। </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> देश का मीडिया अपने टीआरपी वाले प्यार में डूबकर मदहोश हो पबजी वाले प्यार की गाथा सुबह-शाम, दिन-रात सुना-सुना कर देश की जनता का भेजा खाली कर डालता है। सोशल मीडिया पर लिखाड़ू वीर पबजी वाले प्यार के पक्ष-विपक्ष में धड़ाधड़ लेख लिखकर सोशल मीडिया की कमर तोड़ने के लिए कमर कस लेते हैं। कोई इस पबजी वाले प्यार को देश की जीत मानता है तो कोई धर्म या समुदाय की। इस जीत के उत्सव में पूरा देश प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से डूब जाता है। इस बीच इस देश की सीमा एक पल को पबजी वाले प्यार की प्रेमिका की धूर्तता और चतुराई की सीमा को देखती है और दूसरे पल को देशवासियों की मूर्खता की सीमा को।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;"><a href="https://www.facebook.com/authorspsingh" target="_blank">लेखक : सुमित प्रताप सिंह </a></span></b></div>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-56575730182587077992023-07-16T00:01:00.001+05:302023-07-16T00:01:00.125+05:30अंतर्वस्त्र की व्यथा<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <b>इ</b>न दिनों पतियों का अंतर्वस्त्र कच्छा भयभीत व व्यथित है। उसका भयभीत व व्यथित होना उचित है। अभी हाल ही में एक प्रगतिशील नारी ने शब्दों की बुरी तरह धुनाई कर एक कथित कविता बना कर उसे रील प्रेमी नवनृत्यांगनाओं के बीच सोशल मीडिया पर मटकने के लिए छोड़ दिया। अब वह कथित कविता विवश हो सोशल मीडिया पर मटक रही है और लाइक-डिसलाइक व अच्छी-बुरी प्रतिक्रियाओं को विवश हो गटक रही है। भयभीत व व्यथित कच्छा उसकी ऐसी स्थिति देखकर पसीना-पसीना हो रखा है। उसे इस बात का भय है कि इस कविता से कहीं ऐसी स्थिति उत्पन्न न हो जाए कि उसका आस्तित्व ही समाप्त हो जाए। कच्छा जहाँ एक ओर भयभीत है वहीं पतियों से अप्रसन्न भी है। उसकी अप्रसन्नता इस बात से है कि पतियों ने स्वयं की इच्छाओं को तिलांजलि देकर परिवार की इच्छाओं और आवश्यकताओं को सर्वोपरि रखा। स्वयं का कच्छा निरंतर घिस-घिस कर अदृश्य होने की ओर अग्रसर रहा, किन्तु उसकी चिंता छोड़ अपने बाल-बच्चों और पत्नियों के अंतर्वस्त्रों व बहिर्वस्त्रों में कोई कमी न होने दी। कलियुग ने पूरे विश्व के हृदय में परिवर्तन कर दिया, किन्तु इस पति नामक जीव के हृदय ने जाने क्यों सौगंध खा रखी है, कि भैया हम न बदलने वाले। हम तो हर युग में जैसे थे की स्थिति में ही रहेंगे। पतियों की इस जैसे थे की स्थिति से कच्छे का तन-मन सुलग उठता है। कच्छे ने अपना आस्तित्व बचाने के लिए पतियों का माइंड वाश करने का प्रयास किया था, कि पति तो बहुत व्यस्त प्राणी होता है और वह जितना समय अपना कच्छा धोने में व्यय करेगा उतने समय में तो वह अपने परिवार की आवश्यकता की किसी न किसी वस्तु की व्यवस्था कर लेगा। हालाँकि ये कच्छे की अपने-आपको बचाने की एक चाल भर थी। वास्तव में कच्छे को धोते समय पति लोग अनावश्यक बल का प्रयोग करते थे, जिसके परिणामस्वरुप उसकी पसलियाँ क्षत-विक्षत हो जाती थीं। इसके अतिरिक्त पति महोदय कच्छे को धोते समय वाशिंग पाउडर और साबुन की इतनी तगड़ी डोज दे देते थे, कि कच्छे का अंग-प्रत्यंग वाशिंग पाउडर और साबुन से भर उठता था। चाहे जितना भी पानी में उसे निकालो पर वाशिंग पाउडर और साबुन के अंश उसमें जमे रहते थे। जिसका परिणाम ये मिलता था कि कच्छे के शरीर में बुरी तरह खुजली उठती थी और कच्छे को खुजली की थोड़ी मात्रा पतियों को भी समर्पित करनी पड़ती थी। फलस्वरूप पति बेचारे दिन-रात कच्छे द्वारा घेरे गए अंग को खुजाते रहते और अपने निर्दयी नाखूनों से कच्छे में छोटे-मोटे छेदों की अभिवृद्धि कर देते थे। वे छोटे-मोटे छेद ही आगे चलकर बड़े छेदों का रूप धरकर कच्छे के आस्तित्व को समाप्त कर डालते। कच्छे द्वारा माइंड वाश किए जाने के पश्चात् उसे धोने का भार पत्नियों पर आ गया। अब कच्छा अत्यंत प्रसन्न था। पत्नियां अपने नर्म व कोमल हाथों से और उचित मात्रा में वाशिंग पाउडर व साबुन का प्रयोग कर कच्छे को धोने लगीं। अब न तो उसकी पसलियां दुखती थीं और न ही उसका सामना खुजली से होता था। कुल मिला कर उसका अच्छा-खासा जीवन चल रहा था, किन्तु उसके ऊपर बनी कथित कविता ने उसके आस्तित्व को अचानक संकट में डाल दिया। अब कच्छा शांत हो उस कविता से समाज में उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा है। देखें कि पत्नियों के नर्म व कोमल हाथों से उसके आस्तित्व की रक्षा हो पाती है या फिर उसके भाग्य में पतियों के हाथों पटक-पटक कर और खुजलाते हुए समाप्त होना ही लिखा है।</span></p><p style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">लेखक : सुमित प्रताप सिंह</span></b></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-65286032357651381082023-07-09T00:01:00.002+05:302023-07-09T12:36:47.103+05:30बेवफाई के वक्तव्य का संशोधन<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiA2Hr75vUcZhcu5kwwNpyoo4f99DBOk48vy7o-Zw6W5QMHUtiapUx5sgOFmnUAboRikgrXEPll1pMAi7RAOXVB71Y9a8XBGTUC85X14_TJ32JLW9_faJZWj4aYnLnJsk9CBBSN6ZslAwwA0pXbQjCMeYu2jYKVzy-lZKe1NVoVEeWaTnFTAoEGj2jLhw/s549/Bewafaai%20ka%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A4%20vaktavya%20.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="font-size: medium;"><img border="0" data-original-height="206" data-original-width="549" height="120" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiA2Hr75vUcZhcu5kwwNpyoo4f99DBOk48vy7o-Zw6W5QMHUtiapUx5sgOFmnUAboRikgrXEPll1pMAi7RAOXVB71Y9a8XBGTUC85X14_TJ32JLW9_faJZWj4aYnLnJsk9CBBSN6ZslAwwA0pXbQjCMeYu2jYKVzy-lZKe1NVoVEeWaTnFTAoEGj2jLhw/s320/Bewafaai%20ka%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A4%20vaktavya%20.jpg" width="320" /></span></a></div><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <b><span>ट्रे</span></b>न से उतर कर प्लेटफार्म पर चलते हुए गला सूखने लगा तो वहीं दुकान से एक पानी की बोतल खरीद ली। फिर रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में पहुंच कर अपने गले को पानी से तर किया और दुकानदार द्वारा लौटाए गए रुपयों को क्रम से लगा कर जेब में रखने लगा। तभी अचानक मेरा ध्यान एक दस रूपए के नोट पर गया तो उस पर सोनम गुप्ता बेवफा है लिखा पाया। ऐसा नोट मेरे पास दूसरी बार आया था। जब मुझे ऐसा पहला नोट मिला था तब पहली बार मेरा सामना सोनम गुप्ता की बेवफाई से हुआ था। हो सकता है कि ये शरारत किसी कथित प्रेमी की हो जो अपने एक तरफ़ा प्रेम को ठुकराए जाने का बदला सोनम गुप्ता नामक किसी मासूम लड़की से ले रहा हो। ऐसा भी हो सकता है कि किसी सोनम गुप्ता ने किसी मासूम छोकरे की प्रेम कहानी को बेवफाई की कटार से छील डाला हो। इसी उधेड़-बुन में डूबा हुआ था कि रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में लगे टेलीविज़न पर एक व्यक्ति रोते हुए दिखायी दिया। समाचार था कि उस बेचारे ने पाई-पाई जोड़कर अपनी पत्नी को पढ़ाया-लिखाया, लेकिन उस पढ़ाई-लिखाई का फल ये मिला कि उसकी पत्नी क्लास वन अफसर बन गयी और जब उस बेचारे का गर्व से सीना फुला कर जश्न मनाने का समय आया, तब उसे अपनी अफसर पत्नी की बेवफाई का मातम मनाना पड़ रहा है। हालाँकि ये पहला मामला नहीं है जब किसी पति ने अपनी पत्नी के लिए अपना सबकुछ लुटा दिया और बदले में पत्नी की बेवफाई ही नसीब हुई। ऐसे अनेक मामले समाज में समय-समय पर आते रहते हैं। हालाँकि बेवफाई का मैडल केवल स्त्रियां ही नहीं जीततीं, इस मामले में पुरुष भी उनके तगड़े प्रतिस्पर्द्धी हैं। गाँव में जाने कितनी पत्नियां इस आस में अपना जीवन काट देतीं हैं, कि पढ़-लिख कर महानगर में नौकरी करने गया उनका पति एक दिन आएगा और उनके सारे सपनों को साकार करेगा। लेकिन उन बेचारी पत्नियों के सपनों को अपने स्वार्थ की भट्टी में झोंक कर उनके पढ़े-लिखे पति महानगरों में अपनी दूसरी सुंदर-सलोनी पत्नियों के पल्लुओं में खोये हुए बेवफाई का नया अध्याय लिख रहे होते हैं। रेलवे स्टेशन से निकल कर मैंने घर जाने के लिए ऑटो रिक्शा पकड़ा। ऑटो रिक्शा में सफर करते हुए कुछ सोच कर मैंने उस नोट पर लिखे वक्तव्य सोनम गुप्ता बेवफा है को संशोधित कर सिर्फ सोनम गुप्ता ही बेवफा नहीं है लिख दिया और ऑटो रिक्शा से उतर कर उस दस रूपये के नोट को अन्य नोटों के साथ ऑटो रिक्शा वाले के हवाले कर दिया। मैं घर में घुस ही रहा था, कि तभी अचानक एक बड़ी सी कार मेरे बगल में आकर रुकी। उसमें से हमारी कॉलोनी में सब्जी की रेहड़ी लगाने वाला संतोष उतरा और उतर कर मुझसे राम-राम किया। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">मैं उससे बोला - राम-राम संतोष, और सुनाओ कैसे हो?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">संतोष ने बड़े ही संतोष के साथ उत्तर दिया - बाबू जी, राम जी की कृपा से बहुत अच्छे हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">अचानक मुझे शरारत सूझी और मैंने उससे पूछा - अरे भाई, तुम अपनी पत्नी को सिविल सर्विस की तैयारी करवा रहे थे। उसका कुछ परिणाम निकला?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">संतोष के चेहरे पर अब संतोष के साथ मुस्कान भी आ गयी - हाँ बाबू जी, परिणाम बहुत शानदार निकला। श्रीमती जी, कलेक्टर बन गयीं हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">मैं प्रसन्न हो बोला - अरे वाह! ये तो बहुत अच्छा समाचार है। अच्छा ये बताओ कि अब तुम क्या कर रहे हो?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">संतोष ने बताया - श्रीमती जी ने कलेक्टर बनने के बाद कपड़ों का एक शानदार शोरूम खुलवा दिया। और कभी सब्जी की रेहड़ी लगाने वाला ये संतोष आज एक अच्छा-खासा बिजनेसमैन बन चुका है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">इतने सारे नकारात्मक समाचारों के बीच इस सुखद समाचार को सुनकर मन प्रफुल्लित हो उठा। मैंने ये सोच कर पीछे मुड़कर ऑटो रिक्शा वाले को देखा कि उसको दिए दस रुपए के नोट पर लिखे बेवफाई के वक्तव्य को फिर से संशोधित किए जाने की आवश्यकता है। पर वह ऑटो वाला जा चुका था। मैंने संतोष को जलपान के लिए अपने घर में आमंत्रित किया, लेकिन उसने बताया उसके एक और कपड़ों के शोरूम का शहर के एक जाने-माने मॉल में उद्घाटन होना है। उसने किसी और दिन फुर्सत में आकर मिलने का वादा किया और राम-राम कर वहां से चला गया। घर के भीतर घुसते हुए अनायास जेब में हाथ गया तो वहां बीस रुपए का एक मुड़ा हुआ नोट मिला। उसे खोल कर देखा तो उसमें भी सोनम गुप्ता की बेवफाई उपस्थित मिली। मैंने घर में घुसकर अपना बैग रखा और बाकी काम छोड़कर बीस रुपए के उस नोट में लिखे बेवफाई के वक्तव्य को संशोधित करने में जुट गया।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium; text-align: left;"><b>लेखक: सुमित प्रताप सिंह</b></span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-13013323556264517962023-06-30T20:04:00.000+05:302023-06-30T20:04:21.849+05:30टमाटर महाराज की चिंता<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> </span><b><span style="font-size: large;">रा</span></b><span style="font-size: medium;">जसभा सजी हुई थी। सिंहासन पर टमाटर महाराज अभिमान में चूर हो विराजमान थे। नगरवधू मंहगाई उनके चरणों की दासी बनी हुई उनकी सेवा में रत थी। सारी सब्जियां व फल बारी-बारी से टमाटर महाराज को प्रणाम कर राजसभा में स्थित आसनों पर उदास मन के साथ बैठ चुके थे। दालें अपने-अपने मुखों पर प्रसन्नता का झूठा आवरण चढ़ाए नृत्य करते हुए टमाटर महाराज का मनोरंजन कर रहीं थीं। प्याज देव से अदेव की श्रेणी में पहुंच टमाटर महाराज की भुजाओं को गीले नयनों संग धीमे-धीमे दबाने में व्यस्त थे। कालाबाजारियों के लिए टमाटर महाराज के निकट विशेष आसनों की व्यवस्था की गई थी। आम जनता को द्वारपाल बैगनों ने मुख्य द्वार पर ही रोक लिया था। आम जनता विवश हो दूर से ही टमाटर महाराज को देख कर दिवा स्वप्न में डूबी हुई लार टपका रही थी। तभी टमाटर महाराज ने सीसीटीवी ऑपरेटर भिंडी को आदेश दिया कि सीसीटीवी फुटेज देखकर हाल ही में सत्ता से पदच्युत हुए पेट्रोल महाराज की वर्तमान स्थिति का पता लगाया जाए। भिंडी त्वरित कार्यवाई कर पेट्रोल महाराज की वर्तमान स्थिति का पता लगा कर टमाटर महाराज के सम्मुख प्रस्तुत हुई।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">टमाटर महाराज - कहो भिंडी क्या समाचार लाई हो?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">भिंडी - महाराज, पेट्रोल के वर्तमान स्थिति प्याज की भांति बहुत खराब है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">प्याज के साथ दरबार में बैठे बाकी सभाजनों ने चौंक कर भिंडी को देखा। कभी प्याज को परमप्रिय महाराज से संबोधित करने वाली भिंडी के इस रूप को देखकर सभी ने उसे मन ही मन प्रणाम किया। बेचारे प्याज ने धीमे से सांस छोड़ते आह भरी और फिर से अपने कार्य में जुट गया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">तभी सेनापति कद्दू ने पेट्रोल को बंदी बनाकर राजसभा में प्रस्तुत किया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">सेनापति कद्दू - महाराज, ये दुष्ट डीजल और गैस के साथ आपको सिंहासन से हटाने का षड्यंत्र रच रहा था।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">टमाटर महाराज ने पेट्रोल से पूछा - क्या ये सच है?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">बेचारा पेट्रोल, टमाटर महाराज से दृष्टि नहीं मिला पा रहा था।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">टमाटर महाराज - तू और तेरे साथी चाहे जितने भी प्रयत्न कर लें, किन्तु मुझे इस सिंहासन से नहीं डिगा पायेंगे।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">इतना कहकर टमाटर महाराज ने जोर-जोर से हंसना आरंभ कर दिया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">टमाटर महाराज की हंसी में अनमने मन से राजसभा के बाकी सभाजनों ने भी साथ दिया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">तभी आकाशवाणी हुई - मूर्ख टमाटर, इस जग में कुछ भी चिरस्थाई नही है। जिस सिंहासन पर बैठ कर तू अभिमानित हो रहा है एक दिन उसी से औंधे मुंह नीचे गिरेगा।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">टमाटर महाराज उस आकाशवाणी को सुनकर सकपका गए। फिर संभलकर उन्होने कड़क स्वर में राजसभा में पूछा - किसी ने कुछ सुना?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">राजसभा में सभी ने एक स्वर में उत्तर दिया- नहीं महाराज!</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">टमाटर महाराज ने अनुभव किया कि सभी राजसभा जन मंद-मंद मुस्कुरा रहें हैं। तभी प्याज ने उत्साहित हो टमाटर महाराज की भुजाओं को और जोर-जोर से दबाने की प्रक्रिया अपनायी तथा दालों ने और अधिक आनंदित हो नृत्य करना आरंभ कर दिया। सभी ने कनखियों से देखा कि टमाटर महाराज के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं और वहां से अचानक पसीने की पतली धार बहने लगी।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b>लेखक : सुमित प्रताप सिंह</b></span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-59405218127170109602023-06-16T20:30:00.001+05:302023-06-16T20:30:10.557+05:30अंग्रेजी का टैस्ट <p><br /></p><p style="text-align: justify;"> <b><span style="font-size: medium;">अं</span></b>ग्रेजी भाषा का हमारे देश में बहुत महत्त्व है। ये महत्त्व कुछ वैसा ही जैसा प्राचीन काल में संस्कृत और मध्यकाल में फारसी का था। एक कहावत भी तो है ‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या।’ हालाँकि आधुनिक समय में ये कहावत सिर्फ कहने को ही रह गयी है, क्योंकि अब हर कथित पढ़ा-लिखा फारसी नहीं, बल्कि अंग्रेजी का ज्ञान लेना अधिक उचित समझता है। हम भारतीयों में निरंतर जागरूकता आ रही है और हम पुरानी पहचान का सफाया करने में जुटे हुए हैं, सो हो सकता है कि किसी दिन हम उपरोक्त कहावत में से फारसी को संशोधित कर उसके स्थान पर अंग्रेजी को ससम्मान बिठा दें। बहरहाल अंग्रेजी से अपना मिलन कक्षा पांचवीं में हुआ था। अपन ग्राउंड फ्लोर के सरकारी फ्लैट के बाहर खड़े हुए थे कि ऊपर के किसी फ्लोर से एक पुस्तक नीचे आकर गिरी। पुस्तक प्रेमी होने के कारण अपन ने उसे उठाया और उसकी धूल झाड़कर उसके पन्ने पलटते हुए उसकी जाँच-पड़ताल करने लगे। पुस्तक अंग्रेजी का बेसिक ज्ञान सिखाने वाली थी। अपन ने उसका अध्ययन करके कुछ दिनों में अंग्रेजी में नाम लिखने सीख लिए। फिर एक अंग्रेजी बोलना सिखाने वाली पुस्तक मिल गयी। अपन ने उसके भी रट्टे मारने शुरू कर दिए। सरकारी स्कूल में अपने दोस्तों के बीच अंग्रेजी के दो-चार रटे हुए शब्दों की बदौलत अपन पढ़े-लिखे छात्रों की श्रेणी में आने लगे।</p><p style="text-align: justify;">कुछ दिन बाद अपन का परिवार संग गाँव में जाना हुआ। एक दिन अपन गाँव के बच्चों संग एक खेत की मेंढ पर पर बैठे हुए थे। अपन को चारों ओर से गाँव के बच्चों ने घेर रखा था। </p><p style="text-align: justify;">तभी एक बच्चा बोला, "काय भैया, तुम तो सहर में पढ़त हौगे। तौ तुम्हें अंग्रेजी तो आतई हुइए।" </p><p style="text-align: justify;">अपन ने कहा, "हाँ थोड़ी बहुत आती है।" ये इसलिए कहना पड़ा क्योंकि अगर अपन मना करते तो गाँव के बच्चे अपन का मजाक उड़ाते। उनके अनुसार शहर में पढ़ते हो तो अंग्रेजी तो आनी ही चाहिए। </p><p style="text-align: justify;">तभी एक दूसरा बच्चा आगे आया और बोला, "तुम्हें अंग्रेजी आत है तो हमाए एक सवाल को जबाब देओ?" </p><p style="text-align: justify;">अपन ने गंभीर हो कहा, "पूछो!" </p><p style="text-align: justify;">बच्चे ने अकड़कर पूछा, "वाट डू यू वांट?" </p><p style="text-align: justify;">अपन ने झट से अपने राम जी को याद किया और आँखें बंद कर उस पुस्तक के पन्नों को टटोलने लगे जिनका रट्टा मार-मार कर अपन अपनी क्लास के दोस्तों पर अंग्रेजी के शब्दों को फैंकते रहते थे। अपने राम जी ने अपनी मदद की और उस अंग्रेजी बोलना सिखानेवाली पुस्तक का वो पन्ना आँखों के सामने आ गया जिसमें गाँव के बच्चे द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर लिखा हुआ था। अपन ने झट से आँखें खोलीं और इठलाते हुए उत्तर दिया, "आई वांट ए गिलास ऑफ़ वाटर।" </p><p style="text-align: justify;">ये सुनकर वहाँ मौजूद सारे बच्चे एक साथ खुश होते हुए बोले,"अरे, जाको तौ अंग्रेजी आत है।" </p><p style="text-align: justify;">और इस तरह इस सरकारी स्कूल के छात्र की इज्जत बाल-बाल बच गई।</p><p style="text-align: center;"><b>लेखक : सुमित प्रताप सिंह</b></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-44212616152236610732023-03-24T23:11:00.004+05:302023-03-24T23:12:57.248+05:30विसंगतियों को सोटा लगाते हलीम आईना<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> </span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjyj8Tyfnd6LZd6QUb1U1bKrTX54LRsOTK-5_HEX_dvSUssl5blipH8xWImXJ7pjCPqjPVXMEC2erxmQx6LFvWQFjMfDZDNp311Ex23-fIfKdVHaj33Z6auiznf6ynziaKfeuqAXdYc1xwRNrfx4t6U6zmvtbsDz7XezpfvPRaC3P5ZjlDKAPqITyGz/s641/Haleem%20Aaina%20.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="641" data-original-width="494" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjyj8Tyfnd6LZd6QUb1U1bKrTX54LRsOTK-5_HEX_dvSUssl5blipH8xWImXJ7pjCPqjPVXMEC2erxmQx6LFvWQFjMfDZDNp311Ex23-fIfKdVHaj33Z6auiznf6ynziaKfeuqAXdYc1xwRNrfx4t6U6zmvtbsDz7XezpfvPRaC3P5ZjlDKAPqITyGz/s320/Haleem%20Aaina%20.jpg" width="247" /></a></span></div><span style="font-size: medium;"><br /></span><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><b> रा</b></span><span style="font-size: medium;">जस्थान के कोटा शहर के हलीमा आईना पिछले चार दशकों से लेखन कर्म में जुटे हुए हैं। अब तक इनके तीन व्यंग्य कविता संग्रह क्रमशः 'हंसो भी, हंसाओ भी', 'हंसो मत हंसो' एवं 'आईना बोलता है' प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी रचनाएं देश-विदेश के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा अब तक ये कई पुरस्कार व सम्मानों से अपनी झोली को भर चुके हैं। सदैव की भांति हलीम आईना अपने एक हाथ में व्यंग्य कविता का सोटा और दूसरे हाथ में आईना लिए चहलकदमी करते हुए समाज में फैली हुईं विसंगतियों को पहले तो कस कर सोटा लगाते हैं फिर उसके बाद उनके विद्रूप चेहरे को आईना दिखाने का कार्य करते है। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">हलीम आईना - देखिए सुमितजी! मैं कविता लेखन को रोग नहीं मानता, यह तो ईश्वर प्रदत्त अति संवेदनशील मनोस्थिति से उपजता है जो दिल की आवाज बनकर लोगों के दिलों में उतर जाता है तथा मनोरंजन के साथ मार्गदर्शन भी करता है। यदि आप व्यंग्य की भाषा में इसे रोग माने तो मुझे ये रोग आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए ही लग गया था। हमारे हिन्दी के गुरूजी कहानियाँ लिखते थे तथा हमें अपनी कहानियों के समाचारपत्रो में प्रकाशित होने तथा आकाशवाणी में प्रसारित होने के विषय में समय-समय पर सूचित किया करते थे। इसके साथ ही साथ हमारे कोटा शहर के दहशरे मेले में जब मैं काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी, शैल चतुर्वेदी व मणिक वर्मा जैसे हास्य व्यंग्य कवियों को सुनता था तो मेरे मन में आता था कि यार ऐसा तो अपन भी लिख सकते हैं। यही सोचकर पहले कुछ कहानियाँ लिखीं फिर सोचा कि किसी एक विधा में ही अपनी पहचान बनानी चाहिए और फिर मैने हास्य व्यंग्य कविता को चुना। मेरी पहली रचना राष्ट्रदूत (साप्ताहिक ) में छपी उसके बाद विभिन्न मंचों पर मेरे काव्य पाठ का सिलसिला भी शुरू हो गया।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">लेखन से आप पर कौन -सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">हलीम आईना - सुमित भाई! कविता लेखन से मुझ पर अच्छा ही प्रभाव पड़ा है। बुराईयों से बचे रहने के संस्कार तो सूफ़ी परिवार में जन्म लेने से जन्मजात थे ही, लेखन ने मुझे एक अच्छा पाठक भी बना दिया। मैं निरंतर अच्छा से अच्छा पढ़ने लगा। ईश्वर की कृपा से समय सीमा में काम करने, शुद्ध लेखन और सामाजिक सरोकार से जुड़े लेखन की तमीज मुझमें धीरे-धीरे विकसित होती चली गयी।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">क्या आपको लगता है लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">हलीम आईना - सुमितजी! जिस कवि या लेखक की कथनी और करनी में अन्तर न हो और मानवता का हित उसके लेखन का उद्देश्य हो तो उसका लेखन निश्चित रूप से समाज में बदलाव लाने का काम करता है। सूफ़ी और संत कवियों ने यह काम किया भी है। इस बात का इतिहास गवाह है। आज भी कुछ लोग हैं जो इस कार्य में जुटे हुए हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">आपकी सबसे प्रिय रचना कौनसी है और क्यों?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">हलीम आईना - मूलत : मैं हास्य व्यंग्य कवि हूँ या नहीं यह तो आप सब जानते ही होंगे। कवि या लेखक को अपनी हर रचना प्रिय होती है फिर भी आप पूछते हैं तो बता देता हूँ कि 'माँ ' पर लिखा मेरा एक दोहा है जिसे मैंने अपनी माँ के स्वर्गवास के बाद लिखा था मुझे सर्वाधिक प्रिय है -</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">माँ है मन्दिर का कलश, मस्जिद की मीनार।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">ममता माँ का धर्म है, और इबादत प्यार।।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">आप अपने लेखन से समाज को क्या सन्देश देना चाहते हैं?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">हलीम आईना - सुमितजी! प्रश्न बहुत अच्छा है। मैं अल्प दृष्टि का नाचीज कवि बस इतना सा कहना चाहता हूँ कि कविता विश्व समुदाय को जोड़ती है, तोड़ती नहीं। हम भी इसे जोड़ने का ही काम करें। विश्व में प्रेम, शान्ति, सद्भावना, समता, भाईचारा कायम करें। हर हाल में जीवन की चुनौतियों से डटकर मुकाबला करते रहें। सारे गमों को भूल कर हँसते, मुस्कुराते रहें और आनन्द की नदी में डुबकी लगाते रहें।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b>साक्षात्कारकर्ता - सुमित प्रताप सिंह </b></span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-8033019985720711092022-12-30T11:32:00.003+05:302022-12-30T11:33:09.116+05:30ऑस्ट्रेलिया में लेखन कौशल दिखातीं रीता कौशल<p style="text-align: justify;"><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVM05DgsgnX-tnWQIp6eAIP7_9Ygf4msteez5H6tkg8unJ2pqVQPb0c0tYTCWbOhlVM4JcRbWAzsqs8AXjlqRDI4s0L3_4MSBa4paiXkYFmZv-pgl3VuHSXKXsaA8iZVfy-ruTxd5L-nLOk46IZbPnc7qTTRS8CPzv64Sw1noTpSHJ2lCfhzEW5GO4/s1024/IMG-20221228-WA0005.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="768" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVM05DgsgnX-tnWQIp6eAIP7_9Ygf4msteez5H6tkg8unJ2pqVQPb0c0tYTCWbOhlVM4JcRbWAzsqs8AXjlqRDI4s0L3_4MSBa4paiXkYFmZv-pgl3VuHSXKXsaA8iZVfy-ruTxd5L-nLOk46IZbPnc7qTTRS8CPzv64Sw1noTpSHJ2lCfhzEW5GO4/s320/IMG-20221228-WA0005.jpg" width="240" /></a></div><br /><p></p><p style="text-align: justify;"> <span style="font-size: medium;"><b>ऑ</b>स्ट्रेलिया के पर्थ शहर में रह रहीं रीता कौशल मूलरूप से आगरा, उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं। इस समय वह ऑस्ट्रेलियन गवर्नमेंट की लोकल काउन्सिल में फाइनेंस ऑफिसर के पद पर कार्यरत हैं तथा इसके साथ ही साथ हिंदी लेखन में कौशलता का नियमित रूप से प्रदर्शन कर रहीं हैं। 2002 से 2005 ईसवी तक सिंगापुर में हिंदी शिक्षण कर चुकीं रीता कौशल अब तक चार पुस्तकों का सृजन कर चुकीं हैं एवं इनके कई साझा संग्रह व इनके संपादन में 21 श्रेष्ठ बालमन की कहानियाँ ऑस्ट्रेलिया नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त हिंदी समाज ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया की वार्षिक पत्रिका ‘भारत-भारती’ के संपादन की जिम्मेवारी भी इन्होंने 2015 से 2020 ईसवी तक बखूबी संभाली है। इनकी रचनाएँ निरंतर विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं की शोभा बढाती रहतीं हैं एवं इन्हें इनके लेखन के लिए अनेकों पुरस्कार-सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">रीता कौशल - जब से पढ़ना-लिखना सीखा तबसे। जहाँ तक मेरी याददाश्त जाती है ऐसा जान पड़ता है कि मैं खिलौनों की दुनिया की सदस्य कभी नहीं थी। हाँ पुस्तकें मुझे होश सम्भालने से ही प्रिय रही हैं व आज भी मेरी सर्वप्रिय मित्र हैं। मैं पुस्तकों के बीच में बेहद ख़ुशी महसूस करती हूँ। मैं ख़रीदकर, माँगकर, दूसरों से अदल-बदल कर हर तरह से पढ़ती रही हूँ। अब जिसे पढ़ने का इतना चस्का हो तो वह लेखन से कैसे अछूता रह सकता है।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">रीता कौशल - मैंने जहाँ विज्ञान, गणित व लेखाकारी जैसे विषयों का ज्ञान जीवन बसर करने के लिए अर्जित किया, वहीं कविता, कहानी, भाषा, साहित्य मेरी आत्मा की खुराक बन कर मेरा जीवन तत्व बने हैं। अब जो चीज जीवन तत्व बन गई है और माँ सरस्वती के आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त हुई है उसका कोई बुरा प्रभाव कैसे हो सकता है? लेखन ने मुझे एक अलग पहचान, मान-प्रतिष्ठा दी है। साथ ही समय के सदुपयोग का साधन दिया है। तो कुल मिलाकर सब अच्छा ही अच्छा हुआ है बुरा कुछ नहीं।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">रीता कौशल - जी बिलकुल ला सकता है। जो हम पढ़ते हैं, सोचते हैं उसका सीधा असर हमारी मानसिकता पर पड़ता ही है। और व्यक्ति की सोच से ही समाज की सोच का निर्माण होता है।</span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">रीता कौशल - वैसे तो इस प्रश्न का उत्तर देना किसी भी लेखक के लिए बेहद कठिन होता है। फिर भी आपने पूछा है तो मैं कहूँगी कि हाल ही में प्रकाशित मेरा उपन्यास ‘अरुणिमा’ मेरी सबसे प्रिय रचना है। ये मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि एक तो ये मेरा पहला-पहला उपन्यास है दूसरे इसमें एक अछूते विषय को कलमबद्ध किया गया है जो कि पाठकों के द्वारा खूब सराहा जा रहा है। </span></p><p style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: medium;">आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?</span></b></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">रीता कौशल - मैंने अपने लेखन के माध्यम से समाज की सोच में बदलाव लाने का प्रयास किया है। हर कहानी में समाज को सकारात्मक दिशा प्रदान करता हुआ दृष्टिकोण देने की कोशिश की है, जो समाज को एकजुट होने का, अच्छी सभ्यता और संस्कृति, अच्छे संस्कार देने का संकेत देता है। मैंने अपने लेखन में अगर समस्या को उठाया है तो उसके समाधान की बात भी अवश्य की है।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><span style="text-align: left;"><b>साक्षात्कारकर्ता </b></span><b>- सुमित प्रताप सिंह</b></span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-86271002254775951852022-12-29T10:31:00.001+05:302022-12-29T10:31:46.285+05:30साहित्य रथ पर सवार अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य'<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjYOmAQARm7PxDiSf3Qq-hiofgyW1hPvfrwWgc6l-vBEbNHtekz-o5jwfNilrd-sQHoK-UeJmLWTDUnvHkYRTCBxPJw6ucQOVDZC_IBEdnyg9ABdF-zwqLRSppD5sJPSydYLsagONTQAEgs9SqUwYd4n9DT54kqMXwCeqZMCpW0yx9jloyf5u8SKCUa/s1022/20221229_102516.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1022" data-original-width="596" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjYOmAQARm7PxDiSf3Qq-hiofgyW1hPvfrwWgc6l-vBEbNHtekz-o5jwfNilrd-sQHoK-UeJmLWTDUnvHkYRTCBxPJw6ucQOVDZC_IBEdnyg9ABdF-zwqLRSppD5sJPSydYLsagONTQAEgs9SqUwYd4n9DT54kqMXwCeqZMCpW0yx9jloyf5u8SKCUa/s320/20221229_102516.jpg" width="187" /></a></div><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span><b><span style="font-size: large;">दि</span></b><span style="font-size: medium;">ल्ली के रहने वाले अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' मूलतः उत्तरप्रदेश, जिसे इन दिनों उत्तम प्रदेश कहा जा रहा है, के प्रतापगढ़ जनपद के रहने वाले हैं। हालाँकि इन्होंने जन्तु विज्ञान से स्नातक की है, किन्तु इनके मन-मस्तिष्क में लेखन के जंतु वास करते हैं जिससे वशीभूत होकर इन्होंने पत्रकारिता में परास्नातक किया और पूर्ण रूप से लेखन से जुड़ गए। लगभग सोलह वर्ष पत्रकारिता के रथ के रथी की भूमिका का निर्वहन करने के बाद इन्होंने लेखन के जंतुओं की आज्ञा पाकर अपनी प्रथम पुस्तक 'मुखर होता मौन' का प्रकाशन करवाया एवं साहित्य के रथ के रथी होने का भी सौभाग्य प्राप्त किया. साहित्य रथ पर सवार हो अभिमन्यु के मन में साहित्य के प्रति ऐसी श्रद्धा उपजी कि काव्य संग्रह ‘नीलिमा’ के माध्यम से इन्होंने स्वर्गीय लाल सुरेश प्रताप सिंह ‘तृषित’ जी की रचनाओं व उनके लिए लिखे गए महाकवि सुमित्रानंदन पंत के हस्तलिखित पत्र को भी संकलित कर एक धरोहर के रूप में प्रकाशित करवा डाला। फिलहाल अभिमन्यु दैनिक भास्कर के उत्तराखंड संस्करण के लिए दिल्ली ब्यूरो हेड के रूप में सेवाएं दे रहे हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">• <b>आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?</b></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - मेरी नज़र में लेखन को रोग नहीं कहा जा सकता। ये तो माँ शारदा की कृपा होती है, जो अपने आप मिलती है। पढ़ते पढ़ते पता ही चलता, कब आपका लिखने का भी मन होने लगता है। फिर एक दिन आपकी साधना को थोड़ा बल मिलता है और आप कुछ भी लिखते हैं। दुनिया के लिए आपकी पहली रचना चाहे कैसी भी हो, लेकिन आपके अपने लिए वो अद्भुत ही होती है। आप उसे बार-बार पढ़ते हैं और मन ही मन खुश होते हैं। यहीं से आप लेखन के आधीन होना शुरू हो जाते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। हिंदी कविताएं पढ़ने का शौक था। आठवीं कक्षा तक हिंदी कविताओं में खूब रुचि रही। नौवीं कक्षा तक आते-आते एक दिन कुछ पंक्तियां लिखीं। कई बार पढ़ीं। खूब मजा आ रहा था। ऐसा महसूस हुआ कि मैं भी लिख सकता हूँ। फिर दो-तीन तक उन्ही पंक्तियों को दिमाग में घुमाता रहा और अंततः एक कविता तैयार हुई। मैं बता नहीं सकता कि वो क्या खुशी थी। कई परिचितों और दोस्तों को कविता पढ़वाई और सुनाई। मिली-जुली प्रतिक्रियाओं से कभी निराशा तो कभी उत्साह मिला। लेकिन वो दिन बेहद ही खुशी का दिन था, जब एक मित्र के पिताजी ने एक स्थानीय अखबार में उसे प्रकाशित करवाया। बस उसके बाद तो माँ शारदे की कृपा होती चली गई और विभिन्न मुद्दों पर लेखन शुरू हो गया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">• <b>लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा? </b></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - समाज में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक जो प्रैक्टिकल होते हैं। उन्हें किसी के सुख दुख या जीवन के उतार चढ़ाव का उन पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता। समाज के प्रति वो अधिकतर उदासीन रहते हैं। दूसरे होते हैं कुछ भावुक लोग,जो हर बात को दिल से लेते हैं। उस पर गम्भीर विचार करते हैं और उसमें अपनी भावनाएं जोड़ देते हैं और किसी निर्णय तक पहुंचते हैं। लेखन से जुड़ा व्यक्ति हमेशा भावनाओं के अधीन होता है। उसे समाज के प्रत्येक मुद्दे पर चिंतन और मनन की आदत होती है। किसी की पीड़ा,संताप,खुशी,दुख जैसे तमाम भावों से खुद को जोड़ कर ही वो अपने लेखन में उतार देता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। कई बार इसका लाभ भी होता है तो कई भावनाओं में बहकर नुकसान भी उठाना पड़ता है। संसार में हर प्रकार के लोग हैं। जाहिर है,कुछ भावनाओं की कद्र करते हैं तो कुछ उनसे खिलवाड़।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">• <b>क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?</b></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - जी बिल्कुल। समाज में आज भी यदि कुछ संस्कार और मानवता बची है तो वो सिर्फ लेखन की बदौलत ही है। इतिहास गवाह है कि समय-समय पर अपने समय के साहित्यकारों व कवियों की रचनाओं ने समाज को नई दिशा देने का काम किया है। लेखनीबद्ध होकर ही आज हमारे समाज की संस्कृति जिंदा है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">• <b>आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?</b></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - वैसे तो मुझे मेरी अधिकांश रचनाओं से प्रेम है, लेकिन मेरी 'परदेशी' और 'बेटी' दो कविताएं मुझे बेहद पसंद हैं। 'परदेशी' कविता में मैंने गांव से शहर आए उस व्यक्ति की पीड़ा को दर्शाने की कोशिश की है, जो शहर में तमाम कष्ट और समझौते झेल कर जीविका कमाता है और उसके परिजन व गांव के यार दोस्त इसे परदेशी कह कर सम्बोधित करने लगते हैं। जिससे वो खुद को गांव से कटा हुआ पाता है। शहर की तकलीफों और समस्याओं में रहते हुए भी जो एक परदेशी के मन में भवनाएं जाग्रत होती हैं, वो कविता के माध्यम से कहने की कोशिश की है। जबकि वहीं 'बेटी' कविता में एक बेटी के जीवन की तमाम पीडाओं को उठाने की कोशिश की है। हमारे समाज मे आज भी बेटी बड़ी होने पर उस पर जो तमाम पाबंदियां आदि लगा दी जाती हैं, वो वास्तव में अपने आप में बहुत निंदनीय है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">• <b>आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?</b></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">अभिमन्यु पाण्डेय 'आदित्य' - लेखन तो होता ही समाज की दिशा और दशा को सकारात्मक करने के लिए है। ऐसे में मेरी भी कोशिश यही रहती है कि समसामयिक मुद्दों पर अपने विचार सकारात्मक ढंग से रख सकूं। इस साक्षात्कार के माध्यम से मैं समाज से अपील करना चाहता हूँ कि मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में लेखन को भी महत्व मिले। आज की पीढ़ी जिस तरह से किताबों से दूरी बना रही है, उससे लेखन में भी लोगों की रुचि कम हो रही है। आज समाज को अच्छे साहित्य की आवश्यकता है, जो समाज को ही प्रोत्साहित करना होगा।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b>साक्षात्कारकर्ता - सुमित प्रताप सिंह </b></span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-44369086276258336342022-12-28T18:30:00.004+05:302022-12-28T20:32:11.571+05:30बहुरंगी उपन्यास है जैसे थे<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-mEyijqMUpgOkaO9i7pCAHQPRJMTr9VFWSDLQrag0dTaqzxtfuK5bBEnWP3HzxhpaTkAIFVpkK1XooXVAMFaJDNfu_KfjXpYtD_cj6RNOvxznTB5dEzomZuGwagVtxEGJX-t_WLF5WnhtJga8VUQ2VLBl9xAkUAqLAxhDTQ_vFE4GgvgCSg4I8E4b7A/s960/Jaise%20The.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="630" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-mEyijqMUpgOkaO9i7pCAHQPRJMTr9VFWSDLQrag0dTaqzxtfuK5bBEnWP3HzxhpaTkAIFVpkK1XooXVAMFaJDNfu_KfjXpYtD_cj6RNOvxznTB5dEzomZuGwagVtxEGJX-t_WLF5WnhtJga8VUQ2VLBl9xAkUAqLAxhDTQ_vFE4GgvgCSg4I8E4b7A/w263-h400/Jaise%20The.jpeg" width="263" /></a></div><span style="font-size: medium;"> </span><span style="font-size: large;"><b>आ</b></span><span style="font-size: medium;">ज जब हम हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी का दुखड़ा रोया करते हैं तो ऐसे में किसी उपन्यास का दूसरा संस्करण और वह भी मात्र 2 साल में आना इस दुखड़े को खारिज करता है। लेकिन शर्त है कि वह कृति रोचक और मनोरंजक शैली में लिखी गई हो। इस संदर्भ में 'जैसे थे' उपन्यास का दूसरा संस्करण आना उसके पठनीयता, रंजकता और रोचक शैली की गवाही देता है।</span><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> आज जहां हास्य व्यंग्य 500 शब्दों की सीमा में आबद्ध होकर लिखा जा रहा है, वहीं अगर कोई पत्रिका 2000 शब्द युक्त व्यंग्य रचना मांग ले तो व्यंग्यकार दम तोड़ता सा प्रतीत होता है। क्योंकि लंबी रचना में हास्य और व्यंग्य को एक साथ साधना कठिन कार्य है। ऐसे में उपन्यास जैसी विधा में हास्य व्यंग्य साधना महत्वपूर्ण होने के साथ कठिन भी है। चूँकि उपन्यास लिखना ही मात्र धैर्य, साहस और समय की मांग नहीं करता बल्कि पढ़ने के लिए भी धैर्य और समय चाहिए। और आज हमारे पास सब कुछ है अगर कुछ नहीं है तो वह है समय और धैर्य। इस उपन्यास का संक्षिप्त कलेवर और इसकी पठनीयता ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया ।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> किसी उपन्यास का कथानक सीमित कलेवर में भी विस्तार लिए हो सकता है यह हमें इस उपन्यास में देखने को मिलता है। उपन्यास का कथ्य उत्तर भारत के एक गांव व्यस्तपुरा से शुरू होकर विनम्रपुरा थाने तक फैला है। इसी फैलाव के बीच लेखक ने अपनी बात कही है और समाज में विभिन्न स्तरों पर फैली विसंगतियों को पकड़ने का प्रयास किया है। हास्य की फुलझड़ियां और व्यंग्य की कटार दोनों से आप यहां रूबरू होते हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <span> </span>उपन्यास के शुरुआत में ही गाँव व्यस्तपुरा के माध्यम से लेखक वर्तमान समाज की व्यस्त दिखने-दिखाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करता है। आज हम सभी घंटों सोशल मीडिया पर बिताते हैं लेकिन यदि रिश्तेदारों का आना या उनसे मिलने जाना हो तो हमारे पास समय नहीं है। हम व्यस्त हैं। व्यस्त न होने के बावजूद व्यस्त दिखाने की प्रवृत्ति हम सब में कहीं न कहीं मौजूद है, जो उपन्यास के व्यस्तपुरा गांव के हर व्यक्ति के माध्यम से दिखाने की कोशिश हुई है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <span> </span>उपन्यास में एक पात्र है कड़क सिंह। नाम के अनुसार कड़क हैं और विनम्रपुरा थाने के थानेदार हैं। इनके चारित्रिक गुणों से व्यस्तपुरा के लोग इतने प्रभावित हैं कि उनसे मिलने के लिए सब मिलकर विनम्रपुरा थाने तक पैदल यात्रा का कार्यक्रम बनाते हैं। नारद कुमार ऐसे पात्र हैं जो एक कथा से दूसरी कथा में अंतरण करते-कराते हैं। कथा इसी तरह से आगे बढ़ती है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> अगर थानेदार कड़क सिंह की बात करें तो उनके चारित्रिक गुणों में साहस वीरता और आत्मसम्मान की जो भावना है वह विपरीत परिस्थितियों में भी विलीन नहीं होती। बचपन में ही कड़क सिंह के मां, भाई और बहन का गंगा स्नान के दौरान डूब जाना और पिता का एक्सीडेंट के दौरान अपंग हो जाना भी कड़क सिंह की जिजीविषा को तोड़ नहीं पाता। वह पढ़-लिख कर पिता की सेवा करता हुआ एक दिन थानेदार के उच्च पद तक पहुंचता है, जो किसी भी युवा के लिए प्रेरणास्रोत साबित हो सकता है। कड़क सिंह की नारद कुमार के माध्यम से कहानी सुनने के बाद ही व्यस्तपुरा वासी उसे मिलने के लिए पैदल यात्रा का कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और उसे पूरा भी करते हैं। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <span> </span>हमारे समाज में सिनेमा के माध्यम से पुलिस की जो खराब छवि दिखाई जाती है वास्तव में इस पात्र के माध्यम से लेखक ने उस धूमिल छवि को साफ करने की सफल कोशिश की है। चूंकि लेखक स्वयं पुलिस विभाग से है तो उपन्यास में आए पात्र काल्पनिक नहीं हो सकते। लेखक इन पात्रों से वास्तविक दुनिया मे जरूर रूबरू हुए होंगे तभी कड़क सिंह जैसा पात्र वह वे सृजित कर पाए हैं। यह उनकी लेखकीय सफलता है। साहित्य का उद्देश्य ही समाज का हित है और समाज को प्रेरित करना साहित्यकार का दायित्व। यहां लेखक अपने दायित्व में पूर्णत: सफल होते दिखते हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <span> </span>व्यस्तपुरा गांव के माध्यम से लेखक ने शिक्षा जगत से लेकर सरकारी बाबू और अफसरों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार की भी पोल खोलकर रख दी है। व्यस्तपुरा गांव के विकास हेतु जो योजनाएं बनाई जाती हैं वह कभी पूरी नहीं हो पाती। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <span> </span>कथा के बीच से कथा निकालने का हुनर इस कृति में आपको दिखेगा। अभी कड़क सिंह की कथा चल ही रही होती है, कि भागे सिंह नामक चरित्र से हमारा परिचय होता है। यही वह पात्र है जिसका सहारा लेकर लेखक ने महानगरों में होने वाली ठगी का हास्य व्यंग्य शैली में पर्दाफाश किया है। भागे सिंह अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए दिल्ली आता है और घूमने के उद्देश्य से चांदनी चौक पहुंचता है। उसे यहां एक व्यक्ति मिलता है जो सस्ता मोबाइल मुहैया कराने के नाम पर भागे सिंह को ठग लेता है। मात्र 2000 रुपयों में मोबाइल के रूप में जो डिब्बा भागे सिंह को थमाया गया है उसमें पत्थर भरे होते हैं। यहां हम हास्य प्रयोग के बावजूद भागे सिंह के प्रति संवेदनशील होते हैं। बार-बार ठगे जाने पर ग्रामीण भागे सिंह शहर के हर व्यक्ति से डरता है जो उसके संपर्क में आता है। भागे सिंह द्वारा गांव वापस पहुंचकर शहर में दोबारा कदम ना रखने का प्रण लेना वास्तव में हर उस मासूम ग्रामीण का प्रण है जो शहरी कटुता का शिकार हुआ है। यहां मुझे उदय प्रकाश की तिरिछ कहानी याद हो उठी। इस कहानी का नायक भी डरते-डरते शहर पहुंचता है और जीवित व्यक्ति से लाश में तब्दील होकर गांव वापस आता है। वास्तव में यह शहरी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> भागे सिंह के साथ ही तोप सिंह की कहानी भी इसी क्रम में आती है। तोप सिंह कवि है और तुकबंदी करने में माहिर है। हास्य का एक उत्कृष्ट रूप आपको तोपसिंह के खानदान के नामकरण में भी दिखाई देगा। परदादा तमंचा सिंह है, दादा पिस्तौल सिंह है, पिता बंदूक सिंह और खुद वह तोपसिंह है। पात्रों के नामकरण में एक नई प्रयोगशीलता हमें दिखाई देती है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <span> </span>हमारे भारतीय समाज में पंडे-पुजारियों का बड़ा प्रभाव रहा है और अशिक्षित समाज में यह और अधिक है। गंडे-ताबीज के भरोसे हमारी अशिक्षित महिलाएं बच्चा पाना चाहती हैं। परिणाम स्वरूप यह ब्रह्मचारी सरीखे पंडे महिलाओं को अपना शिकार बनाते हैं। इस उपन्यास में अखंड ब्रह्मचारी के नाम से जो पुजारी है वास्तव में वह एक चोर, सट्टेबाज और चरसी है। एक मंदिर से धातु की मूर्ति चुरा कर गांव व्यस्तपुरा में पहुंचता है। चूंकि इस गांव के लोग अशिक्षित हैं तो इस चोर की कुछ कही बातें संयोग से पूरी हो जाती हैं जिसे गांव वाले भविष्यवाणी करार देकर उसे पूजने लगते हैं । हालांकि ब्रह्मचारी के रूप में उसका चरित्र नहीं बदलता और गांव की सुंदर महिलाओं पर उसकी अब भी कुदृष्टि है। दरगाह का खादिम भी उसके साथ इस प्रपंच में मिला हुआ है। जो व्यक्ति इनकी सच्चाई जान सकता है उन्हें यह अपने हथकंडो से रास्ते से हटाने में कामयाब होते हैं। वास्तव में यह प्रतीक है हमारे समाज के उन पंडों और मौलवियों का जो जनता के बीच रहकर न केवल उन्हें धार्मिक रूप से बरगलाते लाते हैं बल्कि महिला और बच्चियों को अपनी हवस का शिकार भी बनाते हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <span> </span>लेखक कथा के साथ-साथ विशेष टिप्पणियां भी करते चलते हैं जो समाज से लेकर राजनीतिक चेहरे को भी उखाड़ कर रख देती हैं। राजनीति में वामपंथ और दक्षिपपंथ की तर्ज पर लेखक सुविधा को भी एक पंथ के रूप में देखता हैं। यह वही पंथ है जिसे सुविधा के अनुसार मतावलंबी कभी इधर, कभी उधर जाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। वास्तव में यह हमारे वर्तमान समाज का एक कटु सत्य है जो साहित्य से लेकर राजनीति तक देखने को मिलता। इस पंथ के घोर समर्थक मिल जाएंगे। इन्हें ही समाज में लुढ़कता लोटा, थाली का बैंगन आदि कहा जाता है। इनकी कोई जाति या धर्म नहीं होता। इस विषय में लेखक कहता है - सुविधा पंथ प्राणियों की जाति और धर्म सिर्फ और सिर्फ सुविधा पंथ ही होता है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span> </span><span> </span>जैसे-जैसे गांव वाले व्यस्त पुरा से विनम्र पुरा की तरफ जाते हैं अनेक कहानियां धीरे-धीरे खुलती हैं। एक कहानी दद्दा जी की भी है जो बुढ़ापे में गांव की एक लड़की पर लट्टू हो गए है। इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उन्हें गांव में ही एक प्रेम गुरु भी मिल गया हैं जो आधुनिक प्रेम के तौर तरीके दद्दा को समझाता हैं। रोज डे, प्रपोज डे, चॉकलेट डे, टेडी डे के रूप में वैलेंटाइन डे का पूरा सप्ताह मनाने की दद्दा को हिदायत देता हैं। प्रेम के इन दिवसों को किस तरह से मनाने के लिए दद्दा जी आगे बढ़ते हैं यह पूरा विवरण हास्य परक है जो कथा में रोचकता पैदा करता है। वास्तव में दद्दा के माध्यम से प्रेम में यह बाजारवाद की घुसपैठ है। बाजार की पहुंच न केवल महानगरो या नगरों तक ही सीमित नही है बल्कि वह गांव की दहलीज तक पहुंच चुका है। इस बाजारवाद के कारण अब गांव का व्यक्ति छाछ नहीं कोक पीता है। ग्रामीण अनाज की रोटी नहीं बल्कि पिज्जा खाता है और गुलाब तथा चॉकलेट से वैलेंटाइन डे मनाता है। यह प्रेम के विकृत स्वरूप की पराकाष्ठा है। लेखक ने बड़े सलीके से यहां इस समस्या को उठाया है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span> </span><span> </span>लेखक ने मेडिकल साइंस में हो रही विभिन्न दवाइयों की खोज को भी अपने कटाक्ष का विषय बनाया है। डॉक्टर खोजी नामक पात्र के माध्यम से खोजी गई दवाई का इस्तेमाल व्यक्तियों को बकरी और बंदर जैसे जानवर बनाने तक पहुंचता है। यह पूरा प्रसंग बेहद हास्य व्यंग्य परक शैली में रचा गया है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"> <span> </span>क्योंकि लेखक साहित्यकार है इसलिए अकादमी में हो रही अनियमितताओं से वह वाकिफ है। ‘भाषा उठाओ अकादमी’ के माध्यम से वह न केवल अकादमी और उससे जुड़े हुए लोगों की पोल खोलता है बल्कि कवि और साहित्यकारों की भूमिका भी संदिग्ध है वह कैसे इन अकादमियों का सहयोग करते हैं यह भी इस उपन्यास में पढ़ा जा सकता है। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span> </span><span> </span>उपन्यास के अंतिम भाग में आकर लेखक खुद भी पुलिस वाला हो उठता है जहां वह पुलिस वाले कैसे टाइम पास करते हैं इस पर टिप्पणी करने से नहीं चूकता।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span> </span><span> </span>उपन्यास के कथा के अतिरिक्त यदि पात्रों की बात करें तो संख्या थोड़ी ज्यादा भले है लेकिन जो नामकरण किए गए हैं वह हास्य की फुहार से आपको सराबोर अवश्य करेंगे। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span> </span><span> </span>जहां तक उपन्यास की भाषा का सवाल है वह पात्र अनुकूल है। जैसा पात्र है उसकी भाषा उसी परिवेश के अनुकूल गढी गई है। उदाहरण के लिए उपन्यास के मध्य में ट्रेन में बैठे हुए लोगों का एक दृश्य है जो अलग-अलग पृष्ठभूमि के हैं। एजुकेटेड महिला अंग्रेजी में ही बात करती है, साउथ इंडियन टूटी फूटी हिंदी में बोलता है, सरदार जी पंजाबी में बोलते हैं तो हरियाणवी अपनी हरियाणवी बोली में संवाद करता दिखाया गया है जो कथ्य की अनिवार्यता है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span> </span><span> </span>जहां तक उपन्यास के कलेवर का संबंध है वह 400, 500 या 700 पृष्ठों में नहीं मात्र 100 पृष्ठों में समाया हुआ है । मैं कहूंगी कि कलेवर के संक्षिप्त होने के कारण ही पठनीयता और संप्रेषणयत्ता कहीं कमजोर नहीं पड़ी है। शुद्ध मनोरंजक शैली में लिखे गए इस उपन्यास के संस्करण की पुनरावृतियां अवश्य होंगी। ऐसी मेरी इच्छा भी है और शुभकामना भी।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">पुस्तक : जैसे थे</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">लेखक : सुमित प्रताप सिंह</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">प्रकाशक : सीपी हाउस, दिल्ली</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">पृष्ठ : 100</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">मूल्य : 120 रुपए </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">समीक्षक : डॉ. अनीता यादव </span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-77335403711737620142022-12-18T23:30:00.003+05:302022-12-21T15:15:07.832+05:30जैसे थे उपन्यास के द्वितीय संस्करण का हुआ लोकार्पण<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfRQX6bcdRQjxYo2A5dnV02JpF1YIWrHwKEgm6XmScIEtzQi0QgQ3RZzShBvGgwrpxgOcpJ7IohR3atEEEOZORx2QDYn_w-k-yZ8qyiKeKxR4vvJ-Mz3NNJXPsLFS9rJullrQm900yar2qArFcoOMwfkZqVL-_7SvNT3Z9sd42m68w0mXMPPC7FAuW/s1280/IMG_20221219_225020_771.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfRQX6bcdRQjxYo2A5dnV02JpF1YIWrHwKEgm6XmScIEtzQi0QgQ3RZzShBvGgwrpxgOcpJ7IohR3atEEEOZORx2QDYn_w-k-yZ8qyiKeKxR4vvJ-Mz3NNJXPsLFS9rJullrQm900yar2qArFcoOMwfkZqVL-_7SvNT3Z9sd42m68w0mXMPPC7FAuW/s320/IMG_20221219_225020_771.jpg" width="320" /></a></div><p> <b>शो</b>भना सम्मान समारोह के बीच सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुमित प्रताप सिंह के बहुचर्चित उपन्यास 'जैसे थे' के द्वितीय संस्करण का मंचासीन विद्वजनों द्वारा लोकार्पण किया गया। जैसे थे पर वक्तव्य की शुरुआत युवा लेखक अमित श्रीवास्तव द्वारा की गई। उन्होंने सुमित के व्यक्तित्व व कृतित्व पर बोलने के पश्चात् जैसे थे पर चर्चा करते हुए कि इस उपन्यास को बहुत रोचक शैली में लिखा गया है। सुमित हर परिस्थिति का सामना जैसे थे के साथ करते हैं। जब भी इनसे पूछो कि कैसे हैं तो इनका उत्तर होता है जैसे थे। हम आशा करते हैं कि सुमित 8 पुस्तकों की सीमा रेखा को पार कर शीघ्र ही पुस्तकों का शतक लगाएं।</p><p>इसके बाद इंस्पेक्टर सुरेंद्र शर्मा ने जैसे थे पर बोलते हुए कहा कि सुमित का जैसा व्यक्तित्व है वैसा ही उनका लेखन है। हम दोनों एक ही विभाग के हैं और जब हम एक यूनिट में साथ थे और जब भी मेरी इनसे मुलाकात होती थी तो ये अपने चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ ही मिलते थे। इनके उपन्यास में इनकी मुस्कुराहट का प्रभाव दिखता है और अपने पात्रों व परिस्थियों से उपन्यास हास्य मिश्रित व्यंग्य को उत्पन्न करता है।</p><p>कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि सुयश कुमार द्विवेदी ने सुमित को उनके उपन्यास के द्वितीय संस्करण के लिए बधाई देते हुए कहा कि जैसे थे एक पठनीय उपन्यास है जिसे एक बार पढ़ना आरंभ करें तो समाप्त किए बिना छोड़ा नहीं जा सकता। इसकी कहानी व इसके पात्र पाठक वर्ग में रोचकता बढ़ाते हैं जो उपन्यास को अंत तक पढ़ने को विवश कर देते हैं। कार्यक्रम की विशिष्ट अतिथि डॉ. अनीता यादव ने जैसे थे पर वक्तव्य देते हुए कहा इस उपन्यास में कई कहानियां एक साथ सफर करतीं हैं। सुमित ने केवल 100 पृष्ठ के इस उपन्यास में जितने विषयों पर कटाक्ष किया है उतने विषयों को किसी 500 पृष्ठों के उपन्यास में भी नहीं उठाया गया होगा। चाहे खाली गांव वालों की कथित व्यस्तता हो या फिर शहर व शहरी जनमानस की संवेदनहीनता हो, चाहे प्रेम के नाम पर बाजारवाद हो या फिर धार्मिक आडंबर हो। सुमित की लेखनी ने इस उपन्यास में लगभग प्रत्येक विषय को लेकर कटाक्ष किया है।</p><p>मुख्य अतिथि ने कहा कि सुमित में लेखन की अपार संभावनाएं हैं।</p><p>अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए श्रीकांत सक्सेना ने कहा कि पुलिस में रहकर भी सुमित की व्यंग्य की सूक्ष्म दृष्टि है जो उनके लेखन में साफ दिखाई देती है। उनका यह उपन्यास रोचक एवं पठनीय उपन्यास है। इसमें व्यंग्य एवं हास्य की प्रचुरता है। उनका व्यंग्य में भविष्य उज्ज्वल है। </p><p>कार्यक्रम के अंत में युवा लेखिका रुपाली सक्सेना ने सुमित को उपन्यास के द्वितीय संस्करण के लिए बधाई देते हुए निरंतर सृजन करने का आह्वान किया।</p><p>रिपोर्ट - संगीता सिंह तोमर </p><p><br /></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-70999098586620210472022-10-16T08:43:00.004+05:302022-10-16T08:57:18.092+05:30भुतहा सरकारी मकान<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg69OA-ucrwDBUtZPKljHLVAeotQe4r72rz3VhjiBrkFO8n4Rbx8D2292_7ei6g7LUoIcF7QKkLCrK8dbWsypPEjse9C2Jh6GWcqQ0rfcc1-5OrZ96Je_0iKvvjnSMHkp3W1UYr86NwzxaMuOAAxZFJyx0j2Q1_WTi4N9JNcpFmFLnaVSX6_U_1SBWZ/s480/2022-10-16_08-39-17.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="360" data-original-width="480" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg69OA-ucrwDBUtZPKljHLVAeotQe4r72rz3VhjiBrkFO8n4Rbx8D2292_7ei6g7LUoIcF7QKkLCrK8dbWsypPEjse9C2Jh6GWcqQ0rfcc1-5OrZ96Je_0iKvvjnSMHkp3W1UYr86NwzxaMuOAAxZFJyx0j2Q1_WTi4N9JNcpFmFLnaVSX6_U_1SBWZ/s320/2022-10-16_08-39-17.jpg" width="320" /></a></div><p style="text-align: justify;"> <span style="font-size: medium;"><b>जै</b></span>से एक आम आदमी के लिए सरकारी नौकरी पाने की तीव्र इच्छा होती है वैसे ही सरकारी नौकरी वाले जीव को सरकारी मकान पाने की दिली चाहत होती है। अब चूंकि सरकारी वेतन उसको और उसके परिवार को पालने में ही दम तोड़ देता है इसलिए निजी मकान के सपने देखना छोड़ सरकारी मकान को खोजना उसकी विवशता हो जाती है। वैसे देखा जाए तो सरकारी जीव के लिए सरकारी मकान अलॉट करवाना आसमान से तारे तोड़ कर लाने जितना ही आसान होता है। इस आसान काम को बहुत आसानी से पूरा करने के बाद जब उस बेचारे को इस बात का पता चलता है, कि जिस सरकारी मकान को उसने दुनिया भर के आसान उपायों को आजमा कर हासिल किया है वह तो भुतहा है तो उसका हाल धोबी के कुत्ते की भांति हो जाता है। सरकारी मकान अलॉट होने के बाद वह सरकारी जीव जिस मकान में किराए पर रह रहा होता है उसके मालिक को जल्द से जल्द मकान खाली कर सरकारी मकान में जाने की बात कह कर वह उसे धमकाते हुए एडवांस किराया देने से साफ इंकार कर चुका होता है। फलस्वरूप उसके मकान का मालिक अपने मकान को दूसरे किरायेदार से एडवांस लेकर उसके लिए बुक कर चुका होता है। अब उस सरकारी जीव के सामने केवल दो ही परिस्थितियां होती हैं कि या तो वह उस भुतहा सरकारी मकान में बस कर भूतों से दो – दो हाथ करे या फिर दूसरा किराए का मकान तलाशने के लिए जूते घिसे।</p><p style="text-align: justify;">इससे पहले कि सरकारी जीव दोनों परिस्थितियों में से किसी एक का चुनाव करे आइए हम सरकारी मकान के भुतहा बनने की प्रक्रिया पर दृष्टि डाल लेते हैं।</p><p style="text-align: justify;">सरकारी मकान जब कई सालों तक खाली रहता है तो उसके दो परिणाम होते हैं। पहला परिणाम होता है कि वह आसपड़ोस के लिए बहुत ही काम की वस्तु हो जाता है। पहले परिणाम के स्वरुप दूसरा परिणाम ये होता है, कि वह मकान आसपड़ोस वालों के अतिरिक्त बाकी कॉलोनी वासियों के लिए भुतहा घोषित हो जाता है।</p><p style="text-align: justify;">उस भुतहा मकान में अंधेरा होते ही अजीबोगरीब आवाजें आने लगती हैं, जिनके बारे में ये बताया जाता है कि वो भूतों की आवाजें हैं। जबकि उस मकान में कभी आसपड़ोस के बेवड़े नशे में धुत्त होने के बाद लड़ते हुए कुटने-कूटने की ध्वनि उत्पन्न करते हैं तो कभी अगल–बगल के प्रेमी युगल जिगर से बीड़ी जलाने के उपक्रम में जुट कर रोमांटिक ध्वनियों के उत्सर्जन में अपना पावन योगदान देते हैं। पड़ोस के मकानों का आलतू–फालतू सामान उस भुतहा पड़े मकान की शोभा बढ़ाता है। रात में पड़ोस की भली नारियां अपना फालतू सामान भुतहा मकान में धरने के दौरान कभी–कभार जब फिसल कर धम्म से फर्श पर गिरती हैं तो गिरने के परिणामस्वरूप निकलीं उनकी चीखों को चुड़ैल की चीखें मान कर कॉलोनी के वीर निवासियों द्वारा उस स्थान से निकलने से बिलकुल परहेज कर लिया जाता है। आसपड़ोस के घरों के सामान रूपी कचरे की अधिकता से जब वायुदेव उस मकान से आवागमन करने को तिलांजलि दे देते हैं तो उस भुतहा मकान में सड़ांध के व्यवसाय में बहुत तेजी से वृद्धि होने लगती है।</p><p style="text-align: justify;">अब चूंकि सरकारी जीव सरकारी कार्यालय और आम जीवन में जीवित भूतों से निरंतर जूझते हुए ही जीवन व्यतीत कर रहा होता है, इसलिए वह पहली परिस्थिति को ही स्वीकार कर सरकारी मकान में आने का निश्चय कर लेता है। उसे उस भुतहा सरकारी मकान के आसपड़ोस के भले लोगों द्वारा बहुत समझाया जाता है, लेकिन वह सरकारी जीव अपने निर्णय पर अटल रहता है। उसके अटल निर्णय के परिणामस्वरूप उस सरकारी मकान से भुतहा आवाजें आनी धीमे–धीमे बंद हो जाती हैं और उस सरकारी जीव व उसके परिवार द्वारा उस सरकारी मकान में गृह प्रवेश करने के साथ ही भुतहा आवाजें वहां से अपना बोरिया–बिस्तर समेटकर किसी अन्य खाली सरकारी मकान में जाकर डेरा डाल लेती हैं।</p><p style="text-align: center;"><b>लेखक : सुमित प्रताप सिंह </b></p><p style="text-align: right;"><span style="font-size: x-small;">चित्र गूगल से साभार </span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-75866679110974597112022-10-10T15:22:00.003+05:302022-10-10T15:23:44.568+05:30व्यंग्य की कढ़ाही चढ़ाते रामस्वरूप दीक्षित<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhm1LdDYNpJkiZp-n32Ri58808jMvmm1tmxJiYKj_y9TJ4NbLffK9hcnzpIRjr0VSjJCiX7Cc4Jigk4Ttlp-vccur8bEOxkyZmaYH236LCPjUoLgvp1PPaKf_kSa9xy3UFVo28ysIuK8waHQR1w6rIGaTEVHb_MbQimOAZXkaOa2Is59UF5YMmdW7ZU/s399/Ramswaroop%20Dikshit%20.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="399" data-original-width="331" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhm1LdDYNpJkiZp-n32Ri58808jMvmm1tmxJiYKj_y9TJ4NbLffK9hcnzpIRjr0VSjJCiX7Cc4Jigk4Ttlp-vccur8bEOxkyZmaYH236LCPjUoLgvp1PPaKf_kSa9xy3UFVo28ysIuK8waHQR1w6rIGaTEVHb_MbQimOAZXkaOa2Is59UF5YMmdW7ZU/s320/Ramswaroop%20Dikshit%20.jpg" width="265" /></a></div><p style="text-align: justify;"> <b>उ</b>त्तर प्रदेश के महोबा जिले में जन्मे रामस्वरूप दीक्षित रीवा विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। वह देश के विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में अपनी साहित्यिक उपस्थिति दर्ज करवाने के साथ - साथ लगभग एक दर्जन साझा संग्रहों के सहभागी बन चुके हैं तथा अपनी तीन स्वतंत्र पुस्तकों का सृजन कर रचनाकर्म में निरन्तर रत रहते हुए इन दिनों वह समकालीन व्यंग्य व्हाट्सएप समूह में वरिष्ठ व्यंग्यकारों के साथ बैठकर व्यंग्य की कढ़ाई चढ़ा उसमें रचना रुपी जलेबियां तलने में मग्न हैं। विसंगतियां, विद्रूता, भ्रष्टाचार, अश्लीलता इत्यादि सामाजिक बुराइयां जलेबियों का वेश धर व्यंग्य की कढ़ाही में इस दुर्भावना से कूदने को आतुर हैं, कि वे सब मिलकर उस कढ़ाही का राम नाम सत्य कर डालें, किंतु रामस्वरूप दीक्षित व उनके साथियों के साथ देश - विदेश के लेखक - साहित्यकार उनकी इस कुत्सित योजना के फलीभूत होने से पहले ही उन सबको तलकर करारी जलेबी के रूप में साहित्य प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। रामस्वरूप दीक्षित से हमने व्यंग्य की कढ़ाही में जलेबियां तलने से थोड़ी देर के लिए विराम लेकर हमारे कुछ प्रश्नों का समाधान करने का आग्रह किया, ताकि पाठक जन उनकी जलेबी तलने की यात्रा अर्थात साहित्यिक यात्रा को जानने का सुख प्राप्त कर सकें।</p><p style="text-align: justify;"><b>आपको जलेबी तलने माफ कीजिए लेखन का रोग कब और कैसे लगा?</b></p><p style="text-align: justify;">रामस्वरूप दीक्षित - लेखन को मैं रोग नहीं, रोगों का इलाज मानता हूं। 1984 से लेखन के क्षेत्र में हूं। देश और समाज में हर क्षेत्र में मनुष्य या व्यवस्था निर्मित करुणाजनक व त्रासद स्थितियों में वांछित बदलाव के प्रति लोगों में चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से कुछ करने के विचार ने लेखन में प्रवृत्त किया। सफर जारी है और शरीर में शक्ति रहने तक जारी रहेगा।</p><p style="text-align: justify;"><b>लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?</b></p><p style="text-align: justify;">रामस्वरूप दीक्षित - लेखन को अगर आप सोद्देश्य कर रहे हैं तो इसका प्रभाव आप या पाठकों पर सकारात्मक ही होता है। मेरे लेखन ने मुझे एक बेहतर व चेतनासम्पन्न मनुष्य बनने में मदद की। अपने पूर्वाग्रहों से हमें हमारा लेखन ही मुक्त करता है। लेखन खुद से भी मुक्ति का मार्ग है। अपने व्यक्ति से परे जाकर ही आप ईमानदार लेखन कर पाते हैं। लेखन आपके भीतर साहस और विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की ताकत पैदा करता है।</p><p style="text-align: justify;"><b>क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?</b></p><p style="text-align: justify;">रामस्वरूप दीक्षित - निश्चित ही लगता है। अगर यह न लगे तो लिखना व्यर्थ है। समाज में आज तक जो भी अच्छे बदलाव आए वे लेखन की वजह से ही। लेखन बदलाव का सबसे कारगर उपाय है। यद्यपि बदलाव की गति बहुत बार दिखाई नहीं देती क्योंकि वह , बाहरी न होकर अंतर्निहित चेतना के स्तर पर होता है , जिसका बहुत स्थूल रूप से पता लगाना संभव नहीं हो पाता। समय जैसे जैसे बीतता है , यह बदलाव साफ दिखाई देने लगता है। जरूरी नहीं कि लेखक अपने जीवन में अपने लिखे से होने वाले परिवर्तन को देख पाए। यह बात प्रतिबद्ध और ईमानदार लेखन के संदर्भ में ही कही जा रही है, क्योंकि प्रतिगामी व यथास्थितिवादी लेखन भी हर काल में होता रहा है, आज भी हो रहा है।</p><p style="text-align: justify;"><b>आपकी अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है और क्यों?</b></p><p style="text-align: justify;">रामस्वरूप दीक्षित - मैं अपनी हर रचना से बराबर प्रेम करता हूं । रचना हमारी संतान की तरह है जिसे जन्म देने में रचनाकार को , चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, गहरी और पीड़ादाई प्रसव वेदना सहन करनी होती है। फिर जन्म लेने वाली संतान कुरूप या विकलांग ही क्यों न हो उससे वैसा ही प्रेम जन्मदाता का होता है जैसा सुंदर ,सुडौल व ताकतवर संतान से। तमाम रचनाओं में से किसी एक रचना का प्रिय होना रचनाकार का खुद की अन्य रचनाओं को अप्रिय सिद्ध करना है। हर रचना की अपनी अलग पहचान, अलग व्यक्तित्व और अलग प्रभाव और रूतवा होता है। बहुत बार कोई रचना अपने रचयिता से भी बड़ी हो जाती है। किसी लेखक की सबसे प्रिय रचना उसके पाठक जी बेहतर बता सकते हैं और उसकी सबसे ताकतवर रचना के बारे में आलोचक।</p><p style="text-align: justify;"><b>आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?</b></p><p style="text-align: justify;">रामस्वरूप दीक्षित - वही जो मेरी रचनाओं में सन्निहित है। लेखक जो भी संदेश समाज को देना चाहता है वह उसकी प्रायः हर रचना में अंतर्निहित होता है। अलग से दिया जाने वाला संदेश , संदेश न होकर उपदेश होता है और मेरे अपने विचार से किसी भी लेखक को उपदेशक की भूमिका से खुद को बचाए रखना चाहिए।उ पदेशकों ने समाज का जाने, अनजाने बहुत अहित किया है और अभी भी कर रहे हैं।ले खक समाज को उपदेश या संदेश न देकर उससे सीधा संवाद करता है। उसकी हर रचना लोक को ही संबोधित होती है।</p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-718898499990446022022-08-14T08:14:00.002+05:302022-08-14T08:16:23.967+05:30तिरंगे की निश्चिंतता <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqi8wp6nqx0BqTZyGX2LggaVQm9hMBK_g8ApXZeqtUz9YFHOZQCBhZsXE6KsUwLOSgs1Qz4detGiKuGO-9EkriP_h2wYRlkaIDmQ_XDVxCsPN3NJiKQyvD9kNp-sSJtZahn2IZORRLvsmuFeAOogg9GiwtrHZ-2OOyjjXYTp6pTqAOAJ9ft2mVA4RM/s2401/9grnrv.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2401" data-original-width="2401" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqi8wp6nqx0BqTZyGX2LggaVQm9hMBK_g8ApXZeqtUz9YFHOZQCBhZsXE6KsUwLOSgs1Qz4detGiKuGO-9EkriP_h2wYRlkaIDmQ_XDVxCsPN3NJiKQyvD9kNp-sSJtZahn2IZORRLvsmuFeAOogg9GiwtrHZ-2OOyjjXYTp6pTqAOAJ9ft2mVA4RM/s320/9grnrv.jpg" width="320" /></a></div><p style="text-align: justify;"> <b>ति</b>रंगा इन दिनों प्रफुल्लित हो मुस्कुरा रहा है। मुस्कुराए भी क्यों न आखिरकार उसे हर घर तिरंगा अभियान के अंतर्गत देश के चप्पे - चप्पे में लहराने का सुखद आनंद जो प्राप्त होने जा रहा है। जहां अधिकांश देशवासी तिरंगे को प्रसन्नता पूर्वक अपने - अपने घरों में फहराने की योजना बना रहे हैं, वहीं कुछ देशवासी विवशता व अनिच्छा का अपने मन-मस्तिष्क में घालमेल कर तिरंगा न फहराने की जुगत भिड़ा रहे हैं। इन दिनों जिस ओर भी दृष्टि दौड़ाओ वहां तिरंगा ही दिखाई दे रहा है। सड़कों पर वाहन चालकों से किसी न किसी प्रकार धन ऐंठने वालों ने भी आजकल तिरंगे की शरण ले ली है। उनके द्वारा भावनाओं का व्यापार कर वाहन चालकों को औने-पौने दामों में तिरंगे सौंपे जा रहे हैं। दुकानों पर बिकने को आतुर तिरंगे बाजारों की शोभा बढ़ा रहे हैं और साथ ही साथ कई बेचारों का जी कोयले की भांति जला रहे हैं। तिरंगा इन दिनों व्यस्त होने का एक माध्यम भी बन गया है। सरकारी कार्यालयों में छोटे - बड़े कर्मचारी तिरंगे के संसार में व्यस्त हैं। बड़े कार्यालयों से छोटे कार्यालयों में धड़ाधड़ तिरंगों की खेप भिजवाई जा रही है। आदेशानुसार छोटे कार्यालयों से कर्मचारियों की घर पर लहराते तिरंगे के साथ मनमोहक फोटो व सेल्फियां बड़े कार्यालयों की ओर सावधानी से मार्च करती हुईं पहुंच रहीं हैं। इस बार तिरंगा कुछ निश्चिंत सा है। उसका निश्चिंत होना स्वाभाविक भी है। अब परिस्थितियां जो उसके अनुकूल हैं। अब न तो उसे सरेआम जलाए जाने का डर है और न ही फाड़ कर अपमानित किए जाने का भय। इन दिनों निश्चिंतता उसका स्वभाव बन गई है। अब वह निर्भय और निश्चिंत हो हवा संग अठखेलियां खेलते हुए जमकर लहरा रहा है। देश में आयोजित किए जा रहे अमृत महोत्सव में तिरंगे को अमृत चखे जाने की अनुभूति हो रही है।</p><p style="text-align: justify;"> अचानक कुछ कर्कश ध्वनियों को सुन तिरंगा विचलित हो उठता है। "मेरे दिल में देशभक्ति कूट - कूट कर भरी हुई है ये जरूरी तो नहीं कि मैं अपनी देशभक्ति का झूठा दिखावा करने के लिए अपने घर में तिरंगा फहराने का ड्रामा करूं।" "ये लोग घर-घर तिरंगा फहराने के षड्यंत्र के अनुसार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर रहे हैं।" "बाबू जी, हर गली शराब की दुकान योजना ने हमारी हालत पतली कर दी। शराब ने हमारा सबकुछ बिकवा दिया। हम तिरंगा घर पर फहराएंगे पर पहले हम बेघरों को घर तो दो, वरना हम नहीं फहराने वाले तिरंगा - विरंगा।" ये सब सुन कर तिरंगा सकुचाते हुए उदास हो धीमी गति से लहराने लगता है। तभी तिरंगे को जय हिंद और वंदे मातरम का घोष करती हुई भीड़ दिखाई देती है। उसे दिखाई देता है कि भीड़ के बीच में अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले वीर सैनिक का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटा हुआ उसके अपनों को अपने अंतिम दर्शन देने के लिए चला आ रहा है। ये दृश्य देखकर तिरंगा द्रवित हो उठता है और अचानक वह तन कर ये सोच कर गर्व से पुलकित हो लहराने लगता है कि जब तक देश की खातिर अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर सपूत हैं तब तक तिरंगे के सम्मान को कोई आंच नहीं आ सकती।</p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-15914524936896746102022-07-24T18:35:00.000+05:302022-07-24T18:35:02.916+05:30गधों का फैसला<p style="text-align: center;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjO2DnHQ0A-PAGMZXXSpNilI1LeCyU3HD-58rFncSLv-kYJsOVT44Cnw-v5KGDQZfz4eGRRpRKAbksOaSBLU0-MeJXmEJIcunaRcEC96D2QpOwJ2Uc73lwM6W5g_V1raLdVxHcXN78rViqh1NT4mh9jHKWV-yEKYK5LAZ2jpV4w8oFWmYT0OujKddzN/s670/Gadhe.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="536" data-original-width="670" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjO2DnHQ0A-PAGMZXXSpNilI1LeCyU3HD-58rFncSLv-kYJsOVT44Cnw-v5KGDQZfz4eGRRpRKAbksOaSBLU0-MeJXmEJIcunaRcEC96D2QpOwJ2Uc73lwM6W5g_V1raLdVxHcXN78rViqh1NT4mh9jHKWV-yEKYK5LAZ2jpV4w8oFWmYT0OujKddzN/s320/Gadhe.jpg" width="320" /></a></div><p></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">जब एक इंसान ने </span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">दूसरे इंसान को गधा कहा </span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">तो एक गधे से </span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">ये सहा न गया </span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">गधा नाराज हो बोला</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">बेशक हम खोता है</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">पर अपुन फैंकता नहीं</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">बल्कि कुछ न कुछ ढोता है</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">इंसानी फितरत को </span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">एक मासूम गधे पे मढ़ते हो</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">पक्का तुम सब इंसान </span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">हम गधों से जलते हो</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">तुम सब हम गधों का</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">गिराना चाहते हो हौसला</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">तो गधा बिरादरी भी </span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">करती है ये फैसला</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">अबकी बार किसी गधे से</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">कोई भूल हुई तो हम</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">ये नेक काम करेंगे</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">उस गधे को डांटेंगे-फटकारेंगें</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">दो-चार दुलत्ती मारेंगे</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">फिर उसे बेइज्जत कर</span></p><p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">बेवकूफ इंसान कहेंगे।</span></p><p style="text-align: right;"><span style="font-size: medium;">* </span><span style="font-size: xx-small;">चित्र गूगल से साभार</span></p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-30784981554080267912022-07-17T19:08:00.000+05:302022-07-17T19:08:18.747+05:30रूपाली सक्सेना के लेखन की संदूकची<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgm_Ki65GJs1i631PNnPc625HSMYwAufVU5-0VfDOGF2PegG0uQhUVnC8Y4_zZY0D2ZIEJxsBBYvndmKlqUNbPq8qdVGjiuVmMzaOff-glPwFtQNKjHr8nVmmhG4UzdOI4X1SUbBPFdmYzD5xQpbt0L7YaP_mv25zPnY0tDrCi99eoJUkWFS2qJnAS3/s1280/Sneh%20Ki%20Sandukchi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="869" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgm_Ki65GJs1i631PNnPc625HSMYwAufVU5-0VfDOGF2PegG0uQhUVnC8Y4_zZY0D2ZIEJxsBBYvndmKlqUNbPq8qdVGjiuVmMzaOff-glPwFtQNKjHr8nVmmhG4UzdOI4X1SUbBPFdmYzD5xQpbt0L7YaP_mv25zPnY0tDrCi99eoJUkWFS2qJnAS3/s320/Sneh%20Ki%20Sandukchi.jpg" width="217" /></a></div><p style="text-align: justify;"> <b><span style="font-size: large;">रू</span></b>पाली सक्सेना का उनकी प्रथम पुस्तक 'स्नेह की संदूकची' के साथ हिंदी लेखन जगत में आगमन हुआ है। किसी भी लेखक की जब प्रथम कृति आती है तो उसके हृदय में इस बात की आशंका रहती है कि न जाने लेखक व पाठक जन की स्वीकृति उसको मिल पाएगी अथवा नहीं। संभवतः कुछ ऐसी ही आशंका रूपाली सक्सेना के हृदय में भी हो रही होगी। 58 कविताओं के इस कविता संग्रह का आरंभ लेखिका ने गणेश स्तुति रचना से किया है। इसके उन्होंने अपने आसपास उपस्थित प्रत्येक विषय पर अपनी कलम चलाने का प्रयास किया है। </p><p style="text-align: justify;">इस कविता संग्रह की शीर्षक कविता 'स्नेह की संदूकची' वास्तव में शीर्षक कविता बनने के योग्य है। इस कविता में उपस्थित भाव पक्ष हृदय स्पर्शी है एवं ये कविता संवेदना से ओतप्रोत है। शीर्षक कविता के अतिरिक्त इस कविता संग्रह में संग्रहित राजपूत रानी के अमर त्याग पर केंद्रित उनकी हाड़ी रानी रचना इस बात का आभास करवाती है, कि ऐतिहासिक पात्रों पर उनकी कलम कुछ और लोकप्रिय रचनाओं का सृजन कर सकती है। इन दोनों रचनाओं के अतिरिक्त इश्क़, मेरा बेटा बड़ा हो गया है, मेरी ख्वाहिशें, विक्षिप्त, पर्यावरण हमारा है, गर तुम कान्हा होते, स्तनपान इत्यादि रचनाओं के माध्यम से रूपाली सक्सेना लेखन जगत के मन ये आस जगाती हैं, कि वह भविष्य में अच्छी व सार्थक रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य सृजन में अपना सक्रिय योगदान देंगीं। </p><p style="text-align: justify;">पाठकजन रूपाली सक्सेना की इस कृति की कुछ रचनाओं की कुछेक भाषायी त्रुटियों व सशक्तता के थोड़े-बहुत अभाव को ये सोच कर अनदेखा कर सकते हैं, कि यह उनका प्रथम साहित्यिक प्रयास है और लेखन की इस लंबी दौड़ को पूरा करने के लिए अभी उन्हें बहुत लंबी यात्रा करनी है। जिस दिन रूपाली सक्सेना इस यात्रा को पूरा करेंगीं उस दिन उनके लेखन की संदूकची में कोई न कोई ऐसी साहित्यिक रचना होगी जो उन्हें अमरत्व प्रदान कर देगी।</p><p style="text-align: justify;">पुस्तक - स्नेह की संदूकची</p><p style="text-align: justify;">लेखिका - रूपाली सक्सेना</p><p style="text-align: justify;">प्रकाशक - संदर्भ प्रकाशन, भोपाल (म.प्र.)</p><p style="text-align: justify;">पृष्ठ - 104</p><p style="text-align: justify;">मूल्य - 250/- रुपये</p><p style="text-align: justify;">समीक्षक - सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली</p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-55367188364863451192022-07-02T20:25:00.002+05:302022-07-02T20:52:50.152+05:30साहित्य धर्म का निर्वहन करते विजय उपाध्याय<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaCuZdazoRLc4EjySVxhkc5bM15nr4xNzOl2Gdc-vkU8E985RijHm2550QML4_ORi6-H6NdsMFdbBpD_BrP7oOZeExI8itk3bUu6RLCq5RZMkVOCe9pfI5lWrQDxoXf5l0wn6noAahs45BAAMb8NOND9jZjum7lV1H0jBDbCUqPcaJiZ6mo-oOJTzt/s895/Viajy%20Upadhyay.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="895" data-original-width="638" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaCuZdazoRLc4EjySVxhkc5bM15nr4xNzOl2Gdc-vkU8E985RijHm2550QML4_ORi6-H6NdsMFdbBpD_BrP7oOZeExI8itk3bUu6RLCq5RZMkVOCe9pfI5lWrQDxoXf5l0wn6noAahs45BAAMb8NOND9jZjum7lV1H0jBDbCUqPcaJiZ6mo-oOJTzt/s320/Viajy%20Upadhyay.jpg" width="228" /></a></div><p style="text-align: justify;"> <b><span style="font-size: large;">हि</span></b>माचल प्रदेश लोक निर्माण विभाग में बतौर सिविल इंजीनियर कार्यरत विजय उपाध्याय को बीस वर्ष की आयु में साहित्य पढ़ते-पढ़ते एक दिन अनुभव हुआ, कि लेखक नामक जीव इनके मन-मस्तिष्क में भी वास कर रहा है। इस अनुभूति के पश्चात इन्होंने कलम उठायी और लिखने लगे। इनकी पहली रचना राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित भी हुई। इसके बाद इन्होंने पीछे मुड़कर देखना अनुचित समझा। एक दशक तक इन्होंने दैनिक ट्रिब्यून, अजीत समाचार एवं अमर उजाला में पत्रकारिता की। इनकी रचनाएँ देश के जाने-माने समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं हैं। जहाँ इनके पुरखों ने पंडिताई करके सनातन धर्म का पालन किया, वहीं विजय उपाध्याय वर्षों से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में अपनी नौकरी के साथ-साथ साहित्य धर्म का निर्वहन कर रहे हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।</p><p style="text-align: justify;"><b>आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?</b></p><p style="text-align: justify;">विजय उपाध्याय - लेखन का रोग तो बीस बरस की उम्र में लग गया था, मगर उससे पहले पढ़ने का रोग लग गया। कहानियां मुझे बहुत अच्छी लगती। जब अक्षर ज्ञान हो गया तो पाठ्यक्रमों में लगी पुस्तकों में से कहानियां छांट कर पढ़ने लगा। फिर भाई-बहनों की किताबों से कहानियां ढूंढ कर पढ़ने लगा। घर में पुरखे पंडिताई करते आ रहे हैं इसलिये गीता प्रैस से कल्याण और बाकी किताबें घर आती थी। प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने तक गीता, रामायण, सुख सागर, महाभारत, गरूड़ पुराण और कुछ ज्योतिष की किताबें पढ़ चुका था। हाई स्कूल में पहुंचते और मैट्रिक करने तक पुराण पढ़ने की तीव्र इच्छा हुई तो पिता जी से अनुग्रह किया कि मुझे पुराण पढ़ने हैं। उन्होंने प्रबंध कर दिया तो वो भी पढ़े। बाद में कालेज पहुंचा तो मैग्ज़ीनों से वास्ता पड़ा। लाइब्रेरी में किताबें मिलने लगीं तो जो भी हाथ लगा वह पढ़ डाला। उस के बाद बड़ों और गुरूजनों ने जो सुझाया वह पढ़ डाला। कुख्यात और विख्यात लेखकों को पढ़ना आदत बन गयी। इसी बीच अनुभूति हुई कि आजकल जो कुछ अखबारों और पत्रिकाओं में छ्प रहा है वह तो मैं भी लिख सकता हूँ। पहले फीचर लिखे। जब वो छपे तो हौंसला बढ़ गया फिर लघुकथा और व्यंग्य लिखने लग गया। प्रतिक्रियाएं मिलती तो मन प्रफुल्लित हो जाता। तब तक पत्रकारिता में आ चुका था फिर तो सिलसिला ही चल निकला। लिखने और पढ़ने के अलावा कुछ और नही सूझा। पहली कहानी लघुकथा थी जो बीस बरस की उम्र में लिखी और उस वक्त दैनिक ट्रिब्यून में छपी थी। मैं सोच-समझ कर या जानकर कभी नहीं लिख सका। जब भी कोई बात या मुद्दा मुझे अंदर तक झकझोर देता है, तब लिखने की प्रेरणा देता है। एक तरह से ऊबकाई या प्रसव की तरह। जब तक मैं उसे शब्दों में ढालकर लिख नहीं देता तब तक भीतर की बेचैनी खत्म नहीं होती।</p><p style="text-align: justify;"><b>लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?</b></p><p style="text-align: justify;">विजय उपाध्याय - लिखने-पढ़ने का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा। एक छोटे से गाँव में, जहाँ ज्ञान प्राप्ति का कोई साधन नहीं रहा, किताबें ही मेरी दोस्त, हमसफर और मार्गदर्शक बन गयीं। ज्ञान चक्षु खुले तो आभास हुआ मुझे कुछ नहीं आता। ज्ञान पिपासा से पीड़ित हुए तो लिखने का भी उबाल आने लगा। इसका फायदा यह रहा कि हम जब भी किसी महफिल या विद्वानों के सानिध्य में बैठे और जब हमने संदर्भ सहित लेखन की बात की तो हमें सराहा गया और ज्ञान से आत्मविश्वास पैदा हुआ जो जीवन में बहुत जरूरी है।</p><p style="text-align: justify;"><b>क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?</b></p><p style="text-align: justify;">विजय उपाध्याय - लेखन और पठन से ज्ञान की प्राप्ति होती है मगर समाज में उससे बदलाव हुआ इस बारे कुछ नहीं कहा जा सकता। बदलाव लोगों की मानसिकता पर निर्भर है। बीड़ी, सिगरेट और शराब जैसी कई चीजों पर लिखा रहता है कि यह सेहत के लिए हानिकारक है, मगर लोग पढ़ कर भी कहाँ मानते हैं। यही स्थिति लेखन पर भी लागू होती है। लोग पढ़ते हैं मनोरंजन के लिए और फिर उससे सबक तो लेते हैं मगर उपयोग बहुत कम करते हैं। लेखन से हर दिशा का पता चलता है। लेखन हर देश काल का आईना होता है। समझदार लोग उस पर अमल कर अपना जीवन सरल बनाते हैं। अतः यह भी नहीं कहा जा सकता कि लेखन का प्रभाव नहीं होता। कम से कम मानसिक स्थिरता और शांति तो रहती ही है।</p><p style="text-align: justify;"><b>आपकी सबसे प्रिय स्वरचित रचना कौन सी है और क्यों?</b></p><p style="text-align: justify;">विजय उपाध्याय - मेरी साहित्यिक रूचि कहानियों में है। अपनी लिखी कहानी की बात करुं तो मुझे 'पापा के नाम' कहानी बहुत प्रिय है। ये बहुत ही मार्मिक कहानी है। सात पोस्ट कार्ड पर बिना कोई शब्द गंवाए कसी हुई कहानी है। इसमें गरीबी और आर्थिक तंगी में फूटती कोंपल है तो बीमारी और बेरोजगारी की लाचारी भी है। ये कहानी निजी स्कूलों के खोखले आदर्शों और छोटे बच्चों की संवेदनाओं को ताक पर रखती व्यवस्था की भी पोल खोलती है। दूसरी कक्षा की बच्ची के शब्दकोष के हवाले से कहानी कहना आसान नहीं है। अभी तक आलोचना के लिए इस में से कुछ मिला नहीं है। मेरी बेटी जब स्कूल जाने लगी तो वह हर दिन वहाँ घटने वालीं कुछ न कुछ घटनाएं शेयर करती और मैं बडे़ ध्यान से सुनता। इस कहानी का कथानक मेरी बेटी की ही देन है, मैने तो बस पत्र शैली में गूँथा है। ये छोटी और मारक कहानी है इसलिए मुझे सर्वाधिक प्रिय है।</p><p style="text-align: justify;"><b>आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?</b></p><p style="text-align: justify;">विजय उपाध्याय - मैं अपने लेखन से यह संदेश देना चाहता हूं कि जीवन से कृत्रिमता को हटा दीजिए। सरल और प्राकृतिक जियें। आडंबर और दिखावे से दूर रहें, जो व्यवहार आप को पसंद नहीं वह दूसरों से न करें, सरल और विनम्र रहें। जीवन बहुत छोटा है इसे किसी घमंड की छाया में बैठकर बर्बाद न करें।</p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7704713613686230089.post-24912511725941923492022-06-30T10:16:00.002+05:302022-06-30T10:16:53.153+05:30हिंदी साहित्य की आस आशा शर्मा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDFp63hRTwiTuG8brLuaWHOpYUKxuBfX0PDphC5M9z0GzlAaspIBkDcs-1LALdtRLVeVSZ7Yp4QJ5_3g1et108nxJDBE6MfBQh6E9QqYADVDwlcifYVGL121BbyCYGyzFAiasLpdYc_h2f75GcTqnTodrExD4V2JxJJw-H8iBefIHTx0Tk0v0E2wjO/s714/20220629_200657.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="714" data-original-width="619" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDFp63hRTwiTuG8brLuaWHOpYUKxuBfX0PDphC5M9z0GzlAaspIBkDcs-1LALdtRLVeVSZ7Yp4QJ5_3g1et108nxJDBE6MfBQh6E9QqYADVDwlcifYVGL121BbyCYGyzFAiasLpdYc_h2f75GcTqnTodrExD4V2JxJJw-H8iBefIHTx0Tk0v0E2wjO/s320/20220629_200657.jpg" width="277" /></a></div><p style="text-align: justify;"> <b><span style="font-size: large;">रा</span></b>जस्थान के बीकानेर जिले की आशा शर्मा पेशे से इंजीनियर और दिल से साहित्यकार हैं। इन्होंने 2014 ईसवी में लेखन आरंभ किया और इनकी लेखनी ने अनवरत चलते हुए सात पुस्तकों का सृजन कर डाला। इनकी रचनाओं ने जहाँ देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में स्थान बनाया, वहीं अनेकों पुरस्कार-सम्मान इनकी झोली में आकर चैन की सांस ले रहे हैं। हिंदी साहित्य को बड़ी आस है कि आशा शर्मा नित्य नई रचनाओं से उसे समृद्ध करती रहेंगीं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।</p><p style="text-align: justify;"><b>आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?</b></p><p style="text-align: justify;">आशा शर्मा - लेखन से भी बहुत पहले मुझे पढ़ने का रोग लगा था। लिखना शायद उसी रोग का साइड इफेक्ट है, जिसके लक्षण पहली बार 2014 ईसवी में दिखाई दिए थे। इसके बाद यह साइड इफेक्ट मुख्य रोग में बदल गया और तब से ही यह रोग लाइलाज बना हुआ है।</p><p style="text-align: justify;"><b>लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?</b></p><p style="text-align: justify;">आशा शर्मा - जिंदगी में जब कोई नया अध्याय जुड़ता है तो जीवन पर उसका प्रभाव पड़ना लाज़िमी है। लेखन से भी बहुत से प्रभाव पड़े जिन्हें अच्छे या बुरे में बांटना मेरे लिए संभव नहीं। लेखन से जुड़ने के बाद मेरा सामाजिक दायरा बहुत बढ़ गया, जो कि एक अच्छा प्रभाव माना जा सकता है, लेकिन सामाजिक दायरा बढ़ने से निश्चित ही मेरा भी टाइम अर्थात व्यक्तिगत समय कम हो गया, जिसे बुरा प्रभाव कहा जा सकता है।</p><p style="text-align: justify;"><b>क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?</b></p><p style="text-align: justify;">आशा शर्मा - क्यों नहीं बदलाव ला सकता? कभी आपने देशभक्ति के गीत सुने हैं? उन गीतों को सुनकर सीमा पर खड़े सैनिकों की बाजुएं फड़कने लगती हैं। दर्दभरी कविताएं आंखों में पानी ला देती हैं। कितने ही ऐसे बड़े-बड़े सामाजिक आंदोलन हुए हैं, जो कलम की शक्ति से ही सफल हुए हैं। लेखक अपने समय से आगे चलते हैं। समाज में उठ रही नित नई समस्याओं के सकारात्मक समाधान कलम के माध्यम से ही लोगों तक पहुंचते हैं। लेखन से ही बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण होता है। कुल मिलाकर मैं तो इस कथ्य से पूरी तरह सहमत हूँ, कि समाज में यदि कोई बदलाव ला सकता है वो कलम है।</p><p style="text-align: justify;"><b>आपकी सबसे प्रिय रचना कौनसी है और क्यों?</b></p><p style="text-align: justify;">आशा शर्मा - ये तो आपने वैसा ही प्रश्न पूछ लिया, कि आपको अपनी संतानों में से सबसे अधिक प्रिय कौन सी है? लेखक को अपनी हर रचना संतान जैसी ही प्रिय होती है, लेकिन जैसे कोई संतान अपनी किसी विशेष योग्यता के कारण दिल के जरा अधिक नजदीक होती है उसी तरह कुछ रचनाएं भी हमारे दिल में अपना विशेष स्थान रखती हैं। मुझे अपनी बहुत सी रचनाएं समान रूप से प्रिय हैं। जिनमें से मैं अपनी कहानी 'साढ़े आठ बजे की कॉल' का नाम ले सकती हूँ। इस रचना को मैंने एक अलग अंदाज में लिखा है। इसके अतिरिक्त मुझे अपनी एक पद्य रचना भी विशेष प्रिय है, जिसे मैंने दर्द के अतिरेक में लिखा था। बच्चों की बहुत सी कविताएं एवं कहानियां और कुछ लघुकथाएं भी मेरे दिल के बहुत करीब हैं।</p><p style="text-align: justify;"><b>आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?</b></p><p style="text-align: justify;">आशा शर्मा - मैं किसी को कोई संदेश नहीं देना चाहती, लेकिन चूंकि मैं बच्चों के लिए अधिक लिखती हूँ इसलिए मेरी इच्छा है कि हमारे बच्चे आने वाले समय में अच्छे नागरिक बनें। मेरा प्रयास रहता है कि मैं अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्हें अच्छी आदतें, अच्छा व्यवहार और अच्छा आचरण सिखाऊं। यदि बचपन संस्कारित होगा तो हर पीढ़ी आदर्श होगी। मैं यही कहना चाहती हूं कि हर परिवार अपने बच्चों को वो सभी संस्कार आवश्यक रूप से दे जो समाज को सही राह दिखाएँ और राष्ट्र की उन्नति में सहायक हों।</p>Sumit Pratap Singhhttp://www.blogger.com/profile/06852765514850701581noreply@blogger.com0