रविवार, 24 जुलाई 2022

गधों का फैसला

जब एक इंसान ने 

दूसरे इंसान को गधा कहा 

तो एक गधे से 

ये सहा न गया 

गधा नाराज हो बोला

बेशक हम खोता है

पर अपुन फैंकता नहीं

बल्कि कुछ न कुछ ढोता है

इंसानी फितरत को 

एक मासूम गधे पे मढ़ते हो

पक्का तुम सब इंसान 

हम गधों से जलते हो

तुम सब हम गधों का

गिराना चाहते हो हौसला

तो गधा बिरादरी भी 

करती है ये फैसला

अबकी बार किसी गधे से

कोई भूल हुई तो हम

ये नेक काम करेंगे

उस गधे को डांटेंगे-फटकारेंगें

दो-चार दुलत्ती मारेंगे

फिर उसे बेइज्जत कर

बेवकूफ इंसान कहेंगे।

* चित्र गूगल से साभार

रविवार, 17 जुलाई 2022

रूपाली सक्सेना के लेखन की संदूकची

      रूपाली सक्सेना का उनकी प्रथम पुस्तक 'स्नेह की संदूकची' के साथ हिंदी लेखन जगत में आगमन हुआ है। किसी भी लेखक की जब प्रथम कृति आती है तो उसके हृदय में इस बात की आशंका रहती है कि न जाने लेखक व पाठक जन की स्वीकृति उसको मिल पाएगी अथवा नहीं। संभवतः कुछ ऐसी ही आशंका रूपाली सक्सेना के हृदय में भी हो रही होगी। 58 कविताओं के इस कविता संग्रह का आरंभ लेखिका ने गणेश स्तुति रचना से किया है। इसके उन्होंने अपने आसपास उपस्थित प्रत्येक विषय पर अपनी कलम चलाने का प्रयास किया है।  

इस कविता संग्रह की शीर्षक कविता 'स्नेह की संदूकची' वास्तव में शीर्षक कविता बनने के योग्य है। इस कविता में उपस्थित भाव पक्ष हृदय स्पर्शी है एवं ये कविता संवेदना से ओतप्रोत है। शीर्षक कविता के अतिरिक्त इस कविता संग्रह में संग्रहित राजपूत रानी के अमर त्याग पर केंद्रित उनकी हाड़ी रानी रचना इस बात का आभास करवाती है, कि ऐतिहासिक पात्रों पर उनकी कलम कुछ और लोकप्रिय रचनाओं का सृजन कर सकती है। इन दोनों रचनाओं के अतिरिक्त इश्क़, मेरा बेटा बड़ा हो गया है, मेरी ख्वाहिशें, विक्षिप्त, पर्यावरण हमारा है, गर तुम कान्हा होते, स्तनपान इत्यादि रचनाओं के माध्यम से रूपाली सक्सेना लेखन जगत के मन ये आस जगाती हैं, कि वह भविष्य में अच्छी व सार्थक रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य सृजन में अपना सक्रिय योगदान देंगीं। 

पाठकजन रूपाली सक्सेना की इस कृति की कुछ रचनाओं की कुछेक भाषायी त्रुटियों व सशक्तता के थोड़े-बहुत अभाव को ये सोच कर अनदेखा कर सकते हैं, कि यह उनका प्रथम साहित्यिक प्रयास है और लेखन की इस लंबी दौड़ को पूरा करने के लिए अभी उन्हें बहुत लंबी यात्रा  करनी है। जिस दिन रूपाली सक्सेना इस यात्रा को पूरा करेंगीं उस दिन उनके लेखन की संदूकची में कोई न कोई ऐसी साहित्यिक रचना होगी जो उन्हें अमरत्व प्रदान कर देगी।

पुस्तक - स्नेह की संदूकची

लेखिका - रूपाली सक्सेना

प्रकाशक - संदर्भ प्रकाशन, भोपाल (म.प्र.)

पृष्ठ - 104

मूल्य - 250/- रुपये

समीक्षक - सुमित प्रताप सिंह, नई दिल्ली

शनिवार, 2 जुलाई 2022

साहित्य धर्म का निर्वहन करते विजय उपाध्याय

     हिमाचल प्रदेश लोक निर्माण विभाग में बतौर सिविल इंजीनियर कार्यरत विजय उपाध्याय को बीस वर्ष की आयु में साहित्य पढ़ते-पढ़ते एक दिन अनुभव हुआ, कि लेखक नामक जीव इनके मन-मस्तिष्क में भी वास कर रहा है। इस अनुभूति के पश्चात इन्होंने कलम उठायी और लिखने लगे। इनकी पहली रचना राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित भी हुई। इसके बाद इन्होंने पीछे मुड़कर देखना अनुचित समझा। एक दशक तक इन्होंने दैनिक ट्रिब्यून, अजीत समाचार एवं अमर उजाला में पत्रकारिता की। इनकी रचनाएँ देश के जाने-माने समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं हैं। जहाँ इनके पुरखों ने पंडिताई करके सनातन धर्म का पालन किया, वहीं विजय उपाध्याय वर्षों से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में अपनी नौकरी के साथ-साथ साहित्य धर्म का निर्वहन कर रहे हैं। हमने कुछ प्रश्नों के माध्यम से इनकी साहित्यिक यात्रा के विषय में जानने का लघु प्रयास किया है।

आपको लेखन का रोग कब और कैसे लगा?

विजय उपाध्याय - लेखन का रोग तो बीस बरस की उम्र में लग गया था, मगर उससे पहले पढ़ने का रोग लग गया। कहानियां मुझे बहुत अच्छी लगती। जब अक्षर ज्ञान हो गया तो पाठ्यक्रमों में लगी पुस्तकों में से कहानियां छांट कर पढ़ने लगा। फिर भाई-बहनों की किताबों से कहानियां ढूंढ कर पढ़ने लगा। घर में पुरखे पंडिताई करते आ रहे हैं इसलिये गीता प्रैस से कल्याण और बाकी किताबें घर आती थी। प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने तक गीता, रामायण, सुख सागर, महाभारत, गरूड़ पुराण और कुछ ज्योतिष की किताबें पढ़ चुका था। हाई स्कूल में पहुंचते और मैट्रिक करने तक पुराण पढ़ने की तीव्र इच्छा हुई तो पिता जी से अनुग्रह किया कि मुझे पुराण पढ़ने हैं। उन्होंने प्रबंध कर दिया तो वो भी पढ़े। बाद में कालेज पहुंचा तो मैग्ज़ीनों से वास्ता पड़ा। लाइब्रेरी में किताबें मिलने लगीं तो जो भी हाथ लगा वह पढ़ डाला। उस के बाद बड़ों और गुरूजनों ने जो सुझाया वह पढ़ डाला। कुख्यात और विख्यात लेखकों को पढ़ना आदत बन गयी। इसी बीच अनुभूति हुई कि आजकल जो कुछ अखबारों और पत्रिकाओं में छ्प रहा है वह तो मैं भी लिख सकता हूँ। पहले फीचर लिखे। जब वो छपे तो हौंसला बढ़ गया फिर लघुकथा और व्यंग्य लिखने लग गया। प्रतिक्रियाएं मिलती तो मन प्रफुल्लित हो जाता। तब तक पत्रकारिता में आ चुका था फिर तो सिलसिला ही चल निकला। लिखने और पढ़ने के अलावा कुछ और नही सूझा। पहली कहानी लघुकथा थी जो बीस बरस की उम्र में लिखी और उस वक्त दैनिक ट्रिब्यून में छपी थी। मैं सोच-समझ कर या जानकर कभी नहीं लिख सका। जब भी कोई बात या मुद्दा मुझे अंदर तक झकझोर देता है, तब लिखने की प्रेरणा देता है। एक तरह से ऊबकाई या प्रसव की तरह। जब तक मैं उसे शब्दों में ढालकर लिख नहीं देता तब तक भीतर की बेचैनी खत्म नहीं होती।

लेखन से आप पर कौन सा अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ा?

विजय उपाध्याय - लिखने-पढ़ने का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा। एक छोटे से गाँव में, जहाँ ज्ञान प्राप्ति का कोई साधन नहीं रहा, किताबें ही मेरी दोस्त, हमसफर और मार्गदर्शक बन गयीं। ज्ञान चक्षु खुले तो आभास हुआ मुझे कुछ नहीं आता। ज्ञान पिपासा से पीड़ित हुए तो लिखने का भी उबाल आने लगा। इसका फायदा यह रहा कि हम जब भी किसी महफिल या विद्वानों के सानिध्य में बैठे और जब हमने संदर्भ सहित लेखन की बात की तो हमें सराहा गया और ज्ञान से आत्मविश्वास पैदा हुआ जो जीवन में बहुत जरूरी है।

क्या आपको लगता है कि लेखन समाज में कुछ बदलाव ला सकता है?

विजय उपाध्याय - लेखन और पठन से ज्ञान की प्राप्ति होती है मगर समाज में उससे बदलाव हुआ इस बारे कुछ नहीं कहा जा सकता। बदलाव लोगों की मानसिकता पर निर्भर है। बीड़ी, सिगरेट और शराब जैसी कई चीजों पर लिखा रहता है कि यह सेहत के लिए हानिकारक है, मगर लोग पढ़ कर भी कहाँ मानते हैं। यही स्थिति लेखन पर भी लागू होती है। लोग पढ़ते हैं मनोरंजन के लिए और फिर उससे सबक तो लेते हैं मगर उपयोग बहुत कम करते हैं। लेखन से हर दिशा का पता चलता है। लेखन हर देश काल का आईना होता है। समझदार लोग उस पर अमल कर अपना जीवन सरल बनाते हैं। अतः यह भी नहीं कहा जा सकता कि लेखन का प्रभाव नहीं होता। कम से कम मानसिक स्थिरता और शांति तो रहती ही है।

आपकी सबसे प्रिय स्वरचित रचना कौन सी है और क्यों?

विजय उपाध्याय - मेरी साहित्यिक रूचि कहानियों में है। अपनी लिखी कहानी की बात करुं तो मुझे 'पापा के नाम' कहानी बहुत प्रिय है। ये बहुत ही मार्मिक कहानी है। सात पोस्ट कार्ड पर बिना कोई शब्द गंवाए कसी हुई कहानी है। इसमें गरीबी और आर्थिक तंगी में फूटती कोंपल है तो बीमारी और बेरोजगारी की लाचारी भी है। ये कहानी निजी स्कूलों के खोखले आदर्शों  और छोटे बच्चों की संवेदनाओं को ताक पर रखती व्यवस्था की भी पोल खोलती है। दूसरी कक्षा की बच्ची के शब्दकोष के हवाले से कहानी कहना आसान नहीं है। अभी तक आलोचना के लिए इस में से कुछ मिला नहीं है। मेरी बेटी जब स्कूल जाने लगी तो वह हर दिन वहाँ घटने वालीं कुछ न कुछ घटनाएं शेयर करती और मैं बडे़ ध्यान से सुनता। इस कहानी का कथानक मेरी बेटी की ही देन है, मैने तो बस पत्र शैली में गूँथा है। ये छोटी और मारक कहानी है इसलिए मुझे सर्वाधिक प्रिय है।

आप अपने लेखन से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?

विजय उपाध्याय - मैं अपने लेखन से यह संदेश देना चाहता हूं कि जीवन से कृत्रिमता को हटा दीजिए। सरल और प्राकृतिक जियें। आडंबर और दिखावे से दूर रहें, जो व्यवहार आप को पसंद नहीं वह दूसरों से न करें, सरल और विनम्र रहें। जीवन बहुत छोटा है इसे किसी घमंड की छाया में बैठकर बर्बाद न करें।

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