मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

व्यंग्य के तड़कों से भरपूर है जैसे थे उपन्यास

 पुलिस का पेशा बड़ा नीरस और सूखा सा लगता है। पुलिस का ख्याल आते ही एक छवि उभरती है, जिसमें हंसी कहीं दूर-दूर तक नहीं होती।  लेकिन सुमित प्रताप सिंह से मिलकर आपके दिमाग में बनी पुलिस की कड़क और खड़ूस वाली छवि निकल जाएगी।  सुमित प्रताप को मैंने पहली बार एक मीडिया कार्यक्रम में कविता पाठ करते सुना था। 'माँ' और 'वन्दे भारत' वाली  देशभक्ति की कविता थी। सुनकर मुझे यकीन नहीं हुआ कि ये कवि नहीं पुलिस पर्सन हैं।  ये तो शुरूआत थी बाद में पता चला कि महाशय कवि कम व्यंग्यकार अधिक हैं, जो सुमित के तडके नाम से अपनी फेसबुक वॉल पर हंसी के खूब तड़के लगाते हैं। 

उत्सुकता बढ़ी तो उनकी लिखित किताब 'जैसे थे' पढ़ी। मेरे लिए इस किताब को पढ़ना एक अलग अनुभव था।  व्यंग्य की शेप में पुलिस का पूरा अनुभव इसमें बोल रहा था। इस किताब में उन्होंने बड़ी सहजता से झूठ, आडम्बर और अपराध के परदे खोले हैं।  जैसे-जैसे किताब आगे बढ़ती जाती है, समाज की परतें प्याज की तरह खुलती चली जाती हैं।

कहानी की शुरुआत व्यस्तपुरा गाँव की चौपाल से होती है। व्यस्तपुरा के माध्यम से लेखक ने बिजी फॉर नथिंग के कच्चे चिट्ठे उधेड़े हैं। जैसे वो बताते हैं कि व्यस्तपुरा के वासी इतने व्यस्त थे कि पड़ोस के गाँव वाले उनसे चिढ़ने लगे कि आखिर ये इतने व्यस्त कैसे रहते हैं।  लेखक ने पात्रों के नाम भी बड़े रोचक चुने हैं। भोलेभाले गाँव वालों की कहानी नारद कुमार के सवाल-जवाब से आगे बढ़ती है। लेखक सुमित के लेखन की ये बात मुझे ख़ास लगी कि उनकी कहानी में करेक्टर 'ओपोसिट कम्पलीमेंट' को बड़े अद्भुत तरीके से निभाते हैं। जैसे विनम्रपुरा थाने का नया थानेदार कड़क है, बाबा सबसे बूढ़े हैं लेकिन नाम बालक है।  थानेदार कड़क सिंह  एक मजनू को सड़क पर हीरोगीरी दिखाते देख कर आग बबूला हो जाते हैं और उसका आधा सर मुड़वा देते हैं। लेख उस वक्त की याद दिलाते हैं जब ये यूपी में बड़ा आम था, लफंगो को सबक सिखाने का शानदार तरीका।  ऐसे ही कहानी का पात्र  पुरानी फिल्मों के वो सीन याद दिला  देते हैं जिसमे शहर और गाँव के कल्चर के फासले दिखते हैं।  यहाँ भी सुमित अपने ओपोसिट कोम्प्लीमेंट वाले स्टाइल में लिखते हैं कि कैसे 'भागे सिंह' शहर पहुंचते हैं और कैसे उनके रिश्तेदार बड़ी बेरूखी से स्वागत करते है। बेचारे रात बालकनी में मच्छरों के साथ बिताते हैं और दिल्ली दर्शन करते हैं और लौट के बुद्धू वापस गाँव आकर ही राहत की सांस लेते हैं।  कहानी के माध्यम से दो  गाँव वालों के बीच की दुश्मनी भी बखूबी दिखाई है|  इतना ही नहीं साधू और मौलाना के वेश में छुपे अपराधियों की कहानी को शामिल करके सुमित  अपराधियों की चतुराई और समाज के आडम्बर और नादानी की पोल भी खोलते हैं। कहानी छोटे-छोटे चैप्टर में बंटी है। जो पढ़ने में काफी सहज लगती है। सुमित जी को खुद कहानी सुनने का शौक है लेकिन इस शौक के कारण हमें भी बड़ी मजेदार और सुन्दर कहानी सुनने को मिली, युवा साहित्यकार सुमित जी साधुवाद और बधाई के पात्र हैं। 

सुमित जी की अगली किताब की प्रतीक्षा रहेगी।

- डॉ. तरुणा एस. गौड़

संपादक, लीड्स इंडिया ग्रुप, दिल्ली

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