गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

व्यंग्य : चुनाव और पुलिस


    र बार चुनाव आता है और आकर चला जाता है। इस दौरान समाज के हर वर्ग की सुध ली जाती है, पर बेचारी पुलिस पर कोई राजनीतिक दल और उसका नेता ध्यान नहीं देता। ऐसा भी हो सकता है कि बेचारी पुलिस किसी वर्ग की श्रेणी में आने के योग्य ही न हो। जब भी वेतन की वृद्धि की बात आती है तो आपसी कटुता को ताक पर रखकर सभी माननीय एक हो जाते हैं। अगर माननीय क्रमशः पार्षद, विधायक और सांसद बन जाते हैं तो वे तीन-तीन पेंशन के हकदार हो जाते हैं, पर पुलिसकर्मी इस मामले में इतना भाग्यशाली नहीं होता है। वह 24 घंटे ड्यूटी के बंधन में बँधे रहने के बावजूद समुचित वेतन पाने का भी हकदार नहीं है। एक पुलिसकर्मी को ऐसी-ऐसी परिस्थितियों व ऐसे-ऐसे स्थानों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता है, कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कभी उसे जेठ की दुपहरी में जलना पड़ता है, कभी मूसलाधार बारिश में भीगते हुए काँपना पड़ता है तो कभी पूस की रात में हाड़ कंपाने वाली ठंड में ठिठुरना पड़ता है। सुनसान इलाके में अंधेरी रात में पिकेट पर आसपास कुछ भी खाने को न मिल पाने के बाद भूख को बर्दाश्त करता हुआ पुलिसवाला आकाश में पेंशन रुपी कल्पित तारे को देखकर इस बात का संतोष करते हुए  अपनी ड्यूटी में कर्मठता से जुटा रहता था, कि जब कभी वह सेवानिवृत्त होगा तो पेंशन के सहारे अपने परिवार संग अपना बाकी जीवन चैन की बंशी बजाते हुए बिताएगा,  पर अब तो नई पेंशन योजना के तहत वो आस भी कबकी टूट चुकी है। पुलिस चाहे लाख अच्छे कार्य कर ले, पर उन पर कभी  ध्यान नहीं दिया जाता, किंतु यदि उससे भूले से भी जरा सी चूक हो जाये तो उसकी आफत आ जाती है। कभी पुलिस के नाम से बदमाशों को पसीना छूट जाता था पर अब बदमाश तो बदमाश बल्कि आम आदमी भी बिना-बात के पुलिस को पीटने की फ़िराक में रहता है। पुलिस को संगठित होकर अपनी बात कहने का भी अधिकार नहीं है, जो संगठित होकर अपने दुःख और परेशानी सरकार के सामने बयाँ कर सके। इसीलिए  पुलिस से जब  कभी उसके वर्तमान हालात के बारे में पूछा जाता है तो पुलिस की बदहाल बैरकें, जर्जर स्टाफ क्वार्टर, थकी-मांदी वर्दी और नींद से भरी हुयी अलसाई हुईं आँखें एक साथ उदासी से मुस्कुराते हुए धीमे से स्वर में कहती हैं जैसे थे।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

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