बुधवार, 4 नवंबर 2020

व्यंग्य : पर्यावरण के लिए युद्ध


   देश की राजधानी में पर्यावरण एक बार फिर से खतरे में है। इसलिए फिर से पर्यावरण के लिए युद्ध लड़ने का समय आ गया है। युद्ध की तैयारी के लिए पर्यावरण से चले पिछले युद्धों की फाइलों को जल्दबाजी में टटोला जा रहा है। उन फाइलों का अध्ययन कर पीछे देख आगे चल का फार्मूला अपना कर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला कर पराली जलाने के लिए पड़ोसी राज्यों के किसानों को पानी पी-पी कर कोसा जा रहा है। इसके साथ ही साथ राजधानी के निवासियों द्वारा निजी वाहनों का प्रयोग करने के लिए उनकी कड़ी निंदा करने की प्रक्रिया चल रही है। उन्हें सलाह की वेशभूषा में आदेश दिए जाने की तैयारी की जा रही है कि वे सभी सार्वजनिक यातायात व्यवस्था का सदुपयोग कर अपनी यात्रा करने की तैयारी आरंभ करें। ये सुनते ही पहले से ही भीड़ से भयभीत सार्वजनिक यातायात व्यवस्था का दम फूलने के संग-संग डर के मारे उसके पसीना छूटने लगा है। राजधानी वासियों ने अपनी आदतानुसार सुझाव रुपी आदेश का पालन करने के लिए भली-भांति तैयारी करनी शुरू कर दी है और इस तैयारी के अंतर्गत सार्वजनिक वाहनों की भीड़ में घुसने और उस भीड़ में से सकुशल बाहर निकलने का अभ्यास करना आरंभ कर दिया है। एक घर से आरंभ हुआ ये अभ्यास धीमे-धीमे पूरी राजधानी में फैलता जा रहा है। राजधानी में वास करने वाली भेड़ें राजधानी वासियों की इस कार्यवाही को देख कर शंका कर रही हैं कि उनके झुंड में से गायब हुई भेड़ों ने कहीं इंसान की खाल पहननी शुरू तो नहीं कर दी है।

लंबे समय तक सोने के बाद जागे ऑड-इवन बंधुओं ने बुलावे का अंदेशा जानकर तैयार होने की प्रक्रिया आरंभ कर दी है। स्लोगनों से सजी तख्तियों संग प्रदूषण से युद्ध करने के लिए अप्रशिक्षित सैनिकों ने रेड लाइटों पर मोर्चा संभाल लिया है और अपने एक हाथ में स्लोगनों की तख्तियाँ पकड़े तथा दूसरे हाथ में स्मार्ट फोन पकड़ कर उसमें खोते हुए स्मार्ट तरीके से अपना टाइम पास करने में मस्त हो चुके हैं। लंबे-चौड़े होर्डिंग राजधानी की हर रेड लाइट पर युद्ध की घोषणा करते दीख रहे हैं। विज्ञापनों के पेट में जितना भी धन रूपी भोजन डाला जा रहा है, उनकी भूख उतनी ही अधिक बढ़ती जा रही है तथा वे सब कुएँ से खाई का रूप धारण करते जा रहे हैं। जैसे-जैसे विज्ञापनों का आकार बढ़ रहा है वैसे ही युद्ध का नेतृत्व कर रहे महायोद्धा के पेट का आकार भी बढ़ता जा रहा है। प्रदूषण ये सब देख कर अपने पुरखों खर-दूषण को साष्टांग प्रणाम करने के उपरांत दंड पेलना आरंभ कर देता है। पर्यावरण एक बार को इस युद्ध का नेतृव कर रहे महायोद्धा और उनके कथित युद्ध को श्रद्धापूर्वक नमन करता है और फिर राजधानी के दमघोंटू वातावरण में साँस लेने का भरकस प्रयत्न करते हुए अपनी अंतिम घड़ी की राह तकना शुरू कर देता है। तभी वह बुझती आँखों से देखता है कि उस कथित युद्ध का नेतृत्व कर रहे महायोद्धा के बगल में पर्यावरण का वेश धारण किए हुए कोई बहुरुपिया खड़ा हुआ मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर राजधानी वासियों का अभिवादन स्वीकार कर रहा है। महायोद्धा के अकुशल सैनिक उस कथित युद्ध की कथित जीत के उपलक्ष में य घोष करते हुए दिखाई देते हैं। पर्यावरण अपनी भूल पर पछतावा करता है कि उसने स्वयं को असली पर्यावरण समझने की भारी भूल की। इसी पछतावे में उस बेचारे के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।

लेखक - सुमित प्रताप सिंह

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