मंगलवार, 30 जून 2020

सॉरी ज़िंदगी


ब भी मैं ज़िंदगी से 
बेहद उदास हो जाता हूँ
तब मेरे दिमाग में 
ये ख्याल आता है कि
क्यों न खत्म कर लूँ खुद को 
और चला जाऊं 
इस दुनिया से बहुत दूर
ये सोचते-सोचते मुझे
रास्ते में मिल जाता है
मंदिर पर भीख माँगने वाला 
दुर्घटना में अपनी दोनों टाँगें 
गँवा बैठा कलवा भिखारी
जो चंद रुपयों की भीख पा
समझता है खुद को
इस दुनिया का
सबसे खुशहाल आदमी
कुछ दूर और चलने पर 
मिल जाती है वो लड़की
जो एक सिरफिरे के 
एक तरफा प्यार में
तेजाब से जलवा चुकी है 
अपना खूबसूरत चेहरा
अपने सारे गमों को भुला 
जब वो हँसती है न तो
उसकी हँसी बहुत हसीन लगती है
और मुझे अपनी उदासी पर 
घिन सी आने लगती है
कुछ और आगे चलने पर 
मिलता है बचपन में
अपनी आँखें खो चुका श्यामू
जो मेरी आँखों का सहारा ले
इस दुनिया को देखकर
जी भरके खिलखिलाता है
अचानक जाने मुझे क्या होता है कि 
मैं भागकर अपने 
घर की ओर जाता हूँ
और अपनी माँ की गोद में 
अपना सिर रखकर सो जाता हूँ
माँ ममता भरे हाथों से
मेरे सिर को सहलाती है तो
एक बार फिर से 
जीने का मन करता है
और मैं पछता कर कहता हूँ 
मैंने तुम्हारा मोल न समझा
सॉरी ज़िंदगी।
लेखक - सुमित प्रताप सिंह
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