गुरुवार, 28 सितंबर 2017

हास्य व्यंग्य : युवराज का सपना


कई दशकों तक देश की कथित रूप से सेवा करने का दम भरनेवाले राजनैतिक दल के लाड़ले युवराज ने विदेशी धरती से देश में 2019 ईसवी में होनेवाले लोकसभा चुनावों का बिगुल अभी से फूँक दिया है। ये निर्णय उन्होंने बहुत सोच-समझकर लिया है। भारतीय धरती से उन्होंने बहुत प्रयास कर लिया, लेकिन सफलता ने उनके पास फटकना भी मंजूर नहीं किया है। क्या-क्या नहीं किया उन्होंने। अपने लाव-लश्कर के संग दलित के घर में आधी रात को जा धमके और वहाँ बाकायदा मीडिया की मौजूदगी में दलित के हाथों से अपना भोग लगवाया। भोग लगवाने के उपरांत अपनी सहृदयता के गीत गाकर उस दलित परिवार को सपनों का झुनझुना पकड़ाया और वहाँ से रफूचक्कर हो लिए। वो बेचारा दलित परिवार अभी भी सपनों में खोकर झुनझुना बजा रहा है और युवराज सपनों के सौदागर बनकर इत-उत डोलने में मस्त हैं। युवराज ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए खाट पंचायत का बड़े स्तर पर आयोजन किया। ये आयोजन इतने बड़े स्तर का था, कि आसपास के गाँववालों की अपने-अपने घरों के लिए टूटी खाटों की जगह नई खाटों को लाने की समस्या चुटकियों में हल हो गई। वे सब खाट पंचायत से नई और मजबूत खाटें लूटकर ले गए और अब उन खाटों पर बैठकर हुक्का फूँकते हुए खाट पंचायत की जोर शोर से ठहाका लगाते हुए चर्चा करते रहते हैं। वहाँ वो सभी खाट पर बैठे-बैठे हुक्का फूँकते हैं और यहाँ कलेजा फुंकता है युवराज का। युवराज इस कृत्य के लिए विरोधियों को जिम्मेवार ठहरा उन्हें पानी पी-पीकर कोसते हुए गरियाते रहते हैं। युवराज ने समय-समय पर अपने कुर्ते की बाजुएँ ऊपर चढ़ाकर सत्ता को सीधी चुनौती भी दी है। वो और उनके दलीय चमचे आए दिन सुंदर और सुशील गालियों से सत्ता पक्ष को सुशोभित करते हुए अपने विपक्षी होने का हक अदा करते रहते हैं। चाहे महागठबंधन की रैलियाँ हों या ‘देश के टुकड़े होंगे हजार’ जैसे नारे लगानेवाले कथित देशप्रेमियों का प्रदर्शन हो या फिर खुद ही दंगा करके खुद ही को पीड़ित दर्शानेवाले शांतिप्रिय समुदाय की विरोध सभा हो युवराज हर जगह पूरी तत्परता से और सबसे पहले उपस्थित मिलते हैं। पर उनकी इस योग्यता से बैर रखनेवाले उन्हें सत्तापक्ष का एजेंट करार देते हैं और उनपर आरोप मढ़ते रहते हैं, कि सत्ता पक्ष के इशारों पर काम करते हुए वो अपनी देश के सबसे ईमानदार राजनैतिक दल की नैया डुबोने में लगे हुए हैं। ऐसे वचन सुनकर युवराज का चेहरा गुस्से के मारे तिलमिला उठता है और उनकी बाजुएँ फडकने लगती हैं। वो क्रोध में अपने कुर्ते की बाजुओं को ऊपर चढ़ाते हैं और वंशवाद के रथ पर सवार हो अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर भोंथरे बाण से लोकसभा चुनाव-2019 रुपी मछली पर निशाना साधने को तैयार होते हैं, कि तभी कोई उनकी कमर पर गदे से जोरदार प्रहार करता है और युवराज उस अप्रत्याशित आक्रमण से घायल हो रथ से नीचे गिर जाते हैं। अचानक उनकी आँख खुल जाती है और वो खुद को औंधे मुँह बिस्तर से जमीन पर गिरा हुआ पाते हैं। वो अपना सिर उठाकर सामने देखते हैं तो सामने राजमाता दुखी और उदास होकर खड़ी हो अपना माथा पीट रही होती हैं।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
कार्टून गूगल से साभार


शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

व्यंग्य : असहिष्णु देश के दीवाने लोग


    पना भारत देश बहुत ही असहिष्णु देश है। ये इतना असहिष्णु देश है कि आए दिन इस देश में असहिष्णुता से परेशान बेचारों को सार्वजनिक रूप से घोषित करना पड़ता है, कि ये देश कितना अधिक असहिष्णु है। इस देश के बहुसंख्यक असहिष्णु समुदाय के सहारे अपना सफल फिल्मी कैरियर बनानेवाले अभिनेता को सालों बाद अचानक ये अहसास होता है कि ये देश तो बड़ा असहिष्णु है। वो बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके ये घोषित करते हैं कि इस देश में इतनी ज्यादा असहिष्णुता बढ़ चुकी है कि यहाँ रहने में उन्हें और उनकी बीबी को बहुत डर लगने लगा है। हालाँकि इतना ज्यादा डरा हुआ होने के बावजूद भी वो इस असहिष्णु देश को छोड़कर कहीं और बसने का विचार भी नहीं करते। हमारे देश के असहिष्णु जीवों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है और वे उन अभिनेता को फिल्मी दंगल में पटखनी देने के बजाय जीत दिलवाकर अपने असहिष्णु होने का ठोस सबूत देते हैं। अभिनेता के शुभचिंतक भी अवसर का लाभ उठाते हुए असहिष्णुता का विरोध करते हुए अपने धूल जम चुके पुरस्कारों और सम्मानों को लगे हाथों लौटाकर विरोध के साथ-साथ अपने आपको गुमनामी से निकालने का प्रयास कर एक तीर से दो शिकार कर डालते हैं और वो भी इस देश को छोड़ने की बजाय इसकी छाती पर ही मूँग दलते  रहते हैं।
बीते दिनों कई साल संविधान के उच्च पद पर बैठकर मलाई खाने के बाद एक बेचारे जाते-जाते असहिष्णुता का रोना रो गए और देश में असहिष्णुता का भोंपू फिर से बजने लगा। वो इतने सालों तक मलाई खाते रहें, लेकिन इस दौरान उन्हें असहिष्णुता के बिल्कुल भी दर्शन नहीं हुए, लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि उनका मलाई खाना अब बंद होनेवाला है, उन्होंने असहिष्णुता का शिगूफा छोड़ दिया और जाते-जाते इस असहिष्णु देश में इतनी इज्जत कमा गए कि अब उन्हें लोगों को अपना मुँह दिखाने में भी सोच-विचार करना पड़ रहा है। बहरहाल अपने देश के इतने असहिष्णु होने के बावजूद भी आए दिन कोई न कोई  मुँह उठाए इसमें बसने के लिए चला आता है। ये सिलसिला आज से नहीं बल्कि हजारों सालों से चल रहा है। बाहर से यहाँ आ धमकने के बाद लोग यहीं डेरा डाल लेते हैं और जब लगता है कि इनका डेरा उखड़ने का खतरा नहीं रहा तो फिर ये असहिष्णुता का राग अलापने लगते हैं। अपना देश कोई देश न होकर धर्मशाला का प्रमाणपत्र पानेवाला है। पहले ही यहाँ नेपालियों और बांग्लादेशियों ने डेरा जमाकर उत्पात मचा रखा है और अब रोहिंग्या भी अपना रोना रोते हुए बोरिया-बिस्तर लादकर आ धमक रहे हैं। उन्हें कोई ये क्यों नहीं बताता कि उन्हें ऐसे असहिष्णु देश में न बसकर बांग्लादेश, पाकिस्तान या फिर अरब के किसी सहिष्णु देश में जाकर पनाह मांगनी चाहिए। पर ये बात शायद उन्हें समझ में नहीं आनेवाली। हमारे असहिष्णु देश के दीवानों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। कभी-कभी लगता है कि आने समय में देश के इन बाहरी दीवानों के आगे के हम असहिष्णु बहुसंख्यकों की संख्या लुप्तप्राय न हो जाए।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
कार्टून गूगल से साभार 

रविवार, 17 सितंबर 2017

लघुकथा : कागौर


   श्राद्धों में कौओं को कागौर खिलाने के बाद भेदा कमरे में बने मंदिर के आगे हाथ जोड़कर बोला, "हे भगवान हमाई अम्मा को स्वर्ग में आराम और चैन से रखियो।"
तभी कमरे में टँगी भेदा की अम्मा की तस्वीर फर्श पर आ गिरी।
भेदा ने तस्वीर को ध्यान से देखा तो उसे ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे उसकी अम्मा उससे कह रही हों, "लला अगर बहू की बातन में न आयकै हमाओ समय से इलाज करवाय देते तो आज तुम्हाये संगें हमऊ कागौर खिलाय रहीं होतीं।"

लेखक : सुमित प्रताप सिंह


मंगलवार, 5 सितंबर 2017

हास्य व्यंग्य : ढीले लंगोटवाले बाबा


“महाराज आप कौन हैं?”
“हम बाबा हैं।“
“कौन से बाबा?”
“हम कलियुग के बाबा हैं।“
“आप करते क्या हैं?”
“हम लोगों के दुःख और परेशानी दूर करते हैं।“
“क्या वास्तव में आप लोगों के दुःख व परेशानी दूर करते हैं?”
“अब अगर शक हैं तो हमारे भक्तों से जाकर पूछ लो। हम क्या बताएँ।“
“आपके भक्त इस देश की जनता के ही अंग हैं और क्या आपको लगता है कि जनता वाकई में कुछ बताने लायक है। फिर उससे पूछने से फायदा क्या? वैसे आप ही क्यों नहीं बता देते?”
“देखो बालक भक्तों के दुःख और परेशानी दूर हुए हों या न भी हुए हों लेकिन वे सब इस बात में यकीन करते हैं कि इनका खात्मा एक न एक दिन अवश्य होगा। ये आस ही उनमें ऊर्जा का संचार करती है और वे आनंद व प्रसन्नता का अनुभव करने लगते हैं।“
“और एक दिन इसी आस में भक्तों का राम नाम सत्य हो जाएगा लेकिन शायद उनके कष्ट दूर नहीं हो पाएँगे।“
“बालक ऐसी निराशावादी सोच से उबरो।“
“निराशावादी सोच नहीं बल्कि हकीक़त है। आप झूठे संसार में अपने भक्तों को रखकर उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं।“
“बालक हम खिलवाड़ नहीं बल्कि हमारे और हमारे भक्तों के जीने का जुगाड़ कर रहे हैं।“
“वो भला कैसे?”
“बालक इस संसार में इतने कष्ट हैं कि किसी भी व्यक्ति का जीना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए हम अपने भक्तों को इस संसार से दूर स्वप्नों के संसार में जीने का तरीका सिखाते हैं।“
“हाँ और इसके बदले आपके मूर्ख भक्त आपकी झोली भरके आपको मालामाल कर देते हैं।“
“बालक ये तुम गलत कह रहे हो।“
“तो फिर सही बात क्या है?”
“सही बात ये है कि हम बाबा होने का फर्ज निभाते हुए अपने भक्तों को मोहमाया के बंधन से मुक्त करते हैं।“
“और अपनी मोहमाया के जाल में अपने भक्तों को क़ैद कर लेते हैं। बाबा वैसे आप किस धर्म के हैं?”
“बालक कार्ल मार्क्स ने कहा है कि धर्म अफीम है और हम किसी भी नशे के खिलाफ हैं इसलिए हम किसी भी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करते। वैसे तुम हमारा पंथ, संप्रदाय अथवा धर्म बाबागीरी ही मान सकते हो।“
“मतलब आप अफीम की बजाय भक्तों को बाबागीरी नाम की चरस पिला रहे हैं।“
“बालक हम भक्तों को चरस नहीं बल्कि प्रेमरस पिला रहे हैं, जिससे विश्व में बंधुत्व की भावना का विकास हो सके।“
“खैर छोड़िए आप ये बताइए कि आपका असली नाम क्या है?”
“बालक सच कहें तो हमें हमारा असली नाम याद ही नहीं रहा है। अब तो हमें लंगोटवाले बाबा के नाम से ही जाना जाता है।“
“अच्छा बाबा एक बात और बताएँ।“
“अब बाकी बातें फिर कभी करेंगे फ़िलहाल हम अपने भक्तों को आशीर्वाद देने जा रहे हैं।“
यह कह बाबा बहुत ही अधीर हो कुछ समय पहले ही वहाँ पधारीं महिला भक्तों की ओर चलने को हुए। उनकी ऐसी हालत देखकर मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया, “बाबा आपने तो अपना नाम लंगोटवाले बाबा बताया था पर आप तो लंगोट के ढीले लगते हैं।”
बाबा आँख मारके मुस्कुराते हुए बोले, “बालक नाम तो हमारा ढीले लंगोटवाले बाबा ही है, लेकिन बोलने में ढीले शब्द साइलेंट हो जाता है।”

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
* कार्टून गूगल से साभार 

शनिवार, 2 सितंबर 2017

लघुकथा : बाहरी


  रीबा समुद्र के किनारे बैठा देख रहा था, कि लोग बारी-बारी से गणेश जी की विभिन्न आकर की प्रतिमाएँ लाते और उन्हें समुद्र मैं विसर्जित करके नाचते-गाते हुए वहाँ से अपने-अपने घर की ओर चले जाते।

गरीबा बहुत देर तक यह सब देखता रहा।

फिर अचानक ही वह बुदबुदाया, "ये और हम लोग गणपति बप्पा को बरोबर पूजता है, लेकिन ये महाराष्ट्र का लोग हम उत्तर भारतीयों  को भैया बोलता है और हमसे बहुत बुरा व्यवहार करता है। हम लोग कई पीढ़ी से यहाँ रह रहा है, फिर भी ये लोग हमको बाहरी ही मानता है।"

गरीबा ने बीड़ी जलाकर एक लंबा सा कश खींचा और बड़बड़ाया, "गणपति बप्पा को ये लोग अपना सबसे बड़ा देवता मानता है, तो वो भी तो उत्तर भारत के हिमालय परबत पर जन्म लिया था। फिर तो अपना गणपति बप्पा भी बाहरी हुआ न?"

फिर अचानक गरीबा जोर से खिलखिलाया, "या फिर हो सकता है, कि इन लोगों का हिमालय परबत महाराष्ट्र में ही किसी जगह पर हो?"

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

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