शनिवार, 10 जून 2017

व्यंग्य : अन्नदाता का दुःख

इन दिनों अन्नदाता हैरान और परेशान हैं। उनकी हैरानी और परेशानी जायज है। वो उन कामों के लिए देश-विदेश में बदनाम हो रहे हैं, जिनको उन्होंने किया ही नहीं। उन्हें उत्पात और विध्वंश का दोषी ठहराया जा रहा है। अन्नदाता कभी उत्पात और विध्वंश करने की सोच ही नहीं सकते। वो तो इतना कर सकते हैं कि जब सहना उनके वश में न हो तो वो किसी पेड़ की डाली पर चुपचाप लटककर अथवा विषपान करके अपनी इहलीला का अंत कर लेंगे। पर उत्पात और विध्वंश करन उनके शब्दकोश में नहीं है। उन्हें सिर्फ सृजन करना आता है। उनके सृजन के फलस्वरूप ही इस संसार का पेट भर रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो संसार अन्नदाताओं के कारण ही पल रहा है,लेकिन फिर भी  संसार को अन्नदाताओं का होना खल रहा है। हर ओर से उम्मीद खोने के बाद राजनीतिक तूफान में अपनी राजनीति की नौका डुबो चुके लोगों ने अन्नदाताओं का सहारा ले फिर से नदी की धारा में अपनी नौका खेवने की भरकस कोशिश शुरू कर दी है। इसके लिए वे किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं। उनके गुंडों ने अन्नदाताओं का भेष धरकर देश में जगह-जगह विनाशलीला आरंभ कर दी है। कभी वो बहरूपिए चूहों को खाने का दिखावा करते हैं तो कभी नरमुंडों के संग फैशनेबल पोज़ देते हैं। कभी किसानों की दुर्दशा का रोना रोकर लूटपाट का सहारा लेते हैं तो कभी आगजनी कर अपने गुस्से का इजहार करते हैं। अब फिर से वो मैदान में हैं। उनके द्वारा दूध किसी भूखे के पेट में जाने की बजाय सड़कों पर बहाया गया। बसें और गाड़ियाँ फूँककर विरोध दर्शाने का ड्रामा रचा गया। लूटपाट और मारपीट का सहारा ले आंदोलन को चमकाने की भरपूर कोशिश हुई। अन्नदाताओं के कंधों का सहारा ले अपनी किस्मत चमकाने का प्रयास करनेवाले राजनीति के बाजीगर नित नई बाजी चल रहे हैं और देश और समाज को छल रहे हैं। उनका क्रोध उचित है। इतने सालों से देश में राम राज्य चल रहा था और एक दिन एक व्यक्ति आया और उसने आकर अचानक उस रामराज्य का दी एंड कर दिया। तथाकथित बुद्धिजीवी सामूहिक रूप से रामराज्य के फिर से लौटने की प्रार्थना आए दिन करते रहते हैं। उस राम राज्य की वापसी के लिए संग्राम जरूरी है और उस संग्राम को लड़ने की जिम्मेवारी किसान का भेष धरे बहरूपियों ने संभाली है। उन बहरूपियों की डोर राजनीति के बाजीगरों के हाथों में हैं। जैसे-जैसे  बहरूपियों का उत्पात बढ़ता जा रहा हैवैसे-वैसे ही अन्नदाताओं का दिल भय से धड़कने लग रहा है। वो उन बहरूपियों की लच्छेदार बातों में फँसकर बेमौत मारे जा रहे हैं। उनकी लाश पर राजनीति करनेवालों की बाँछें खिल उठी हैं। वो ब्रांडेड कपड़े पहने हुए शुद्ध पौष्टिक भोजन और बिसलेरी की बोतल अपनी काँख में दबाए हुए मोटरसाइकिल पर बिना हेलमेट पहने व ट्रिपल राइडिंग करते हुए अन्नदाताओं के दुखों और परेशानियों को हरने के दावे के साथ उनके बीच पधार चुके हैं। अब शायद अन्नदाताओं के दुःख और परेशानी दूर होने का वक़्त आ गया। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि उनके दुःख और परेशानी सुरसा जैसा विशाल आकार लेने को अग्रसर हो रहे हों।    
लेखक : सुमित प्रताप सिंह 
चित्र गूगल से साभार 

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