शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

व्यंग्य : प्रतिक्रिया

   मेशा की तरह फिर से पड़ोस से आतंकी हमला हुआ और इस आतंकी हमले में हमारे कई वीर सैनिक शहीद हो गए। इस लोमहर्षक घटना पर देश में सभी ने अपने-अपने तरीके से प्रतिक्रिया दी।
एक वीर रस के कवि ने इस आतंकी हमले पर त्वरित कार्यवाही की। उसने फटाफट एक आशु कविता का सृजन कर डाला। उसने कविता का आरंभ देश के सत्ता पक्ष को गरियाने और कोसने से किया और समापन शत्रु देश पर बम-गोले बरसाने के साथ किया। तभी उसके पड़ोस के किसी शरारती बच्चे ने उसके घर के बाहर पटाखा फोड़ दिया। पटाखे की आवाज सुन उस वीर रस के कवि ने अपने भय से काँपते हुए मजबूत हृदय पर अपने दोनों हाथ रखे और भागकर अपने घर के कोने में जाकर छुप गया।
सत्ता पक्ष ने सदा की भाँति निंदा नामक गोला निकाला और पड़ोसी देश पर दाग दिया। विपक्ष ने इस सुनहरे अवसर को हाथ से न निकल जाने देने के लिए अपनी कमर कसी और धरना-प्रदर्शन कर सत्ता पक्ष के नाक में दम कर दिया।
मीडिया ने भी इस मौके को भुनाने के लिए कुछ खाली टाइप के इंसानों को न्यूज़ रूम में आमंत्रित कर बहस का माहौल बनाया और धीमे-धीमे बहस इतनी गरमागरम हो गई कि जूतम-पैजार तक की नौबत आ गई। न्यूज़ चैनल ने इस बहस को दिन-रात बार-बार दिखाकर जनता के दिमाग का दही बना डाला।
देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इस दुर्घटना पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और उन्होंने इसे आम घटना मानकर अपनी बुद्धि घिसने पर ही ध्यान केंद्रित रखा।
मानवाधिकार प्रेमियों ने भी इसे सामान्य घटना मानकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बल्कि वे प्रतीक्षा करने लगे कि कोई एनकाउंटर वगैरह हो और अपराधी अथवा आतंकी नामक कोई भला जीव सुरक्षाकर्मियों द्वारा पकड़ा अथवा मारा जाए और फिर वे सभी मानवाधिकार की दुहाई देते हुए छाती पीटते हुए विधवा विलाप करना आरम्भ करें।
देश की जनता को ये सब देख बड़ा रोष हुआ और उसने इसके लिए अपनी आवाज बुलंद की पर जनता की आवाज तो पाँच सालों में एक बार ही सुनी जाती है और अभी उसमें काफी समय बाकी था। सो जनता ने कुछ देर चिल्ल-पौं की और फिर शांत हो अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई।
इन सबसे इतर शहीद जवानों की माएँ और पत्नियाँ अपने-अपने लालों को सैनिक बन मातृभूमि की रक्षा करने के लिए पाल-पोसकर तैयार करने लगी। यह देख जननी जन्मभूमि ने उन वीरांगनाओं को कई-कई बार नमन किया। 
लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

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