सोमवार, 28 दिसंबर 2015

छोटे शहर के बड़े दाज्यू


- भाई नफे!
- हाँ बोल भाई जिले!
- हल्द्वानी की सैर कैसी रही?
- भाई बहुत बढ़िया रही। छोटे शहर के बड़े दाज्यूओं के संग दो दिन बहुत शानदार बीते।
- भाई ये दाज्यू का मतलब क्या है?
- कुमाऊनी भाषा में दाज्यू का अर्थ होता है भाई।
- तो नफे दाज्यू अब खोलके बता कि वहाँ दो दिन क्या-क्या किया?
- जिले दाज्यू 24 दिसंबर की रात हम दिल्ली से हल्द्वानी पहुँचे। वहाँ हमारा स्वागत देश के चर्चित युवा कवि एवं व्यंग्यकार दाज्यू गौरव त्रिपाठी ने किया। दाज्यू गौरव हल्द्वानी में अमर उजाला में वरिष्ठ उपसंपादक हैं। हल्द्वानी में अमर उजाला के संपादक दाज्यू अनूप वाजपेयी ने दाज्यू गौरव त्रिपाठी को शहर में पर्वतीय उत्थान मंच द्वारा आयोजित होनेवाले मेले में कवि सम्मेलन को संयोजित करने की कमान सौंपी थी। जिस होटल में दाज्यू गौरव हमें ठहराने के लिए ले गए वहाँ आगरा से गीतकार दाज्यू दीपक सरीन भी पहले से पहुँचे हुए थे। आधी रात के बाद वहाँ अगले दिन होनेवाले कवि सम्मेलन का पूर्वाभ्यास ऐसा चला कि सुबह होटल के संचालक ने उलझन में पूछ डाला कि रात को इतनी तेज आवाजें क्यों आ रही थीं। तो दाज्यू गौरव ने उसे समझा दिया कि दिल्ली और आगरा से दो कवि आए हैं और रात को कविता सम्मेलन से पहले एक कवि गोष्ठी चल रही थी।
- हा हा हा दाज्यू मतलब कि तीनों कवियों ने आधी रात को हल्द्वानी के उस होटल को अपनी कविताओं से कँपा डाला।
- हाँ बिलकुल दाज्यू जोश में तीनों कवि ऐसे बहके कि उन कुछ घंटों के दौरान होटल के उस कमरे में बस कविता ही कविता छाई रही।
- अच्छा दाज्यू अब अगले दिन का हाल बता कि कवि सम्मेलन कैसा रहा?
- कवि सम्मेलन बहुत ही शानदार रहा। हल्द्वानी बेशक छोटा शहर है लेकिन यहाँ के लोग दिल से बड़े हैं।
- अच्छा तूने तभी मेरे पूछने पर इनके लिए कहा था छोटे शहर के बड़े दाज्यू।
- हाँ बिलकुल! शहर के सभी कवियों व कवियित्रियों ने इस कवि सम्मेलन को ऊर्जावान बना दिया। दाज्यू दीपक सरीन ने जहाँ अपने हसीन गीतों से शमा बाँधा, वहीं हल्द्वानी की युवा कवियित्री गौरी मिश्रा 'काजल' के मधुर स्वर में सुनाए गीतों ने श्रोताओं के दिलों में हलचल पैदा कर दी। वरिष्ठ और सबसे सेहतमंद हास्य कवि दाज्यू राजुकुमार भंडारी ने खूब हँसाया और इस कवि सम्मेलन के संयोजक दाज्यू गौरव त्रिपाठी ने अपनी रचनाओं से हम सबके दिलों को गुदगुदाया। विवेक वशिष्ठ ‘नीलकंठ’, वेद प्रकाश ‘अंकुर’, मंजू पांडेय ‘उदिता’ व वीणा जोशी ‘हर्षिता’ इत्यादि कवियों और कवियित्रियों ने भी अपने-अपने अंदाज में श्रोतागणों का मनोरंजन किया।
- और दाज्यू सुमित प्रताप सिंह का कविता पाठ कैसा रहा?
- अगर उनका कविता पाठ बढ़िया न रहता तो क्या उनकी कलम हमें बोलने देती?
- हा हा हा दाज्यू बात तो तूने पते की कही है।
- दाज्यू सुमित प्रताप सिंह और दाज्यू दीपक सरीन के प्रस्तुतीकरण का अंजाम ये रहा कि हल्द्वानी की जनता ने उन्हें जल्द ही फिर से किसी कवि सम्मेलन में बुलाने की इच्छा जताई है।
- अरे वाह! इसका मतलब है कि हल्द्वानी की जनता कविताप्रेमी है।
- हाँ दाज्यू हल्द्वानीवाले कविताप्रेमी होने के साथ-साथ बहुत अच्छे श्रोता भी हैं। कवि सम्मेलन के मुख्य अतिथि हल्द्वानी के मेयर दाज्यू जोगेन्द्र सिंह रौतेला, पी.एफ. सहायक आयुक्त दाज्यू एम.सी. पांडेय, युवा व्यापार मंडल जिलाध्यक्ष दाज्यू जसविंदर भसीन इत्यादि अतिथिगण श्रोताओं के साथ कवि सम्मेलन में आखिरी समय तक बने रहे। कवि सम्मेलन के सूत्रधार व अमर उजाला हल्द्वानी के संपादक दाज्यू अनूप वाजपेयी ने प्रसन्नतापूर्वक कवि सम्मेलन के सफलतापूर्ण समापन की घोषणा की। इसकी व्यवस्था देख रहे इवेंट मैनेजर दाज्यू नागेश दुबे तो इसकी सफलता के बाद दुबे से चौबे हो गए।
- दाज्यू हल्द्वानी से कोई परिचित आकर मिला या नहीं?
- हल्द्वानी से व्यंग्य यात्रा की सहयात्री मीना अरोड़ा मिलने आयीं थीं और हम सबके लिए  प्रेम और स्नेह से भरा उपहार भी लायीं थीं।
- अरे वाह! अच्छा दाज्यू ये बता कि कवि सम्मेलन के तुम सबने मेला घूमा कि नहीं?
- हाँ दाज्यू मेला घूमने का सुख भला कैसे छोड़ते। जहाँ हम कवियों ने मेले में विवेक वशिष्ठ 'नीलकंठ' द्वारा आयोजित चटपटी भेलपूरी पार्टी और दाज्यू गौरव त्रिपाठी द्वारा दी गयी स्वादिष्ट मुंगोड़ों की पार्टी का आनंद लिया वहीं मुख्य अतिथि दाज्यू जोगेन्द्र सिंह रौतेला ने ऊँट की सवारी का लुफ्त उठाया।
- चटपटी भेलपुरी और मुंगोड़ों का सुनके तो मुँह में पानी आ गया। और ऊँट की सवारी। दाज्यू ये रेगिस्तान का जहाज पहाड़ों में कहाँ से पहुँच गया?
- दाज्यू ऊँट की सवारी ही तो इस मेले का मुख्य आकर्षण थी।
- तो तुम सबने ऊँट की सवारी की या नहीं?
- नहीं दाज्यू फुरसत ही नहीं मिली। हम मेले से निकलकर अगले दिन की योजना बनाकर होटल के कमरा नंबर 102 में रात को बिस्तर में गोल हो गए।
- अच्छा दाज्यू अगले दिन कहाँ घूमे-फिरे?
- दाज्यू दीपक सरीन का बावरा मन हल्द्वानी में नहीं लगा और वो सुबह जल्दी ही आगरा को रफू-चक्कर हो गए। वो बता रहे थे कि उनके घर से कुछ दूर स्थित पागलखाने से बहती हुई हवा उनके घर के बगल से होकर गुजरती है और उनका बावरा मन उस हवा से बिछोह ज्यादा दिन नहीं झेल सकता है सो उन्हें तो जल्द से जल्द आगरा पहुँचना ही था।
- दाज्यू वाकई में अजब-गजब हैं दाज्यू दीपक सरीन का बावरा मन। खैर छोड़ दाज्यू ये बता कि तुम सब कहाँ-कहाँ घूमने गए?
- दाज्यू पहले तो हमारा मन नैनीताल घूमने का था पर दाज्यू गौरव त्रिपाठी ने बताया कि नैनीताल में बहुत भीड़ चल रही है सो हम भीमताल घूमने निकल पड़े।
- भीमताल में कहाँ-कहाँ घूमे और क्या-क्या किया?
- सबसे पहले हमने स्वादिष्ट मोमो का स्वाद लिया फिर भीमताल के आजू-बाजू फोटोग्राफी की। इसके बाद हमने भीमताल में बोटिंग का आनंद लिया। फिर दाज्यू सुमित प्रताप सिंह का मन बादशाह बनने का हुआ और वो अचानक बादशाह के वस्त्र धारण कर शाही अंदाज में आ गए। इसके कुछ पलों के बाद उन्होंने बगावत कर दी और बागी का वेश धर उन्होंने दाज्यू गौरव त्रिपाठी पर बंदूक तान दी।
- बंदूक तान दी! पर दाज्यू क्यों?
- दाज्यू सुमित प्रताप सिंह ने दाज्यू गौरव त्रिपाठी के सीने पर बंदूक की नली लगा पूछा कि उत्तराखंड में जल्दी ही कवि सम्मेलन करवाओगे या नहीं?
- हा हा हा! तो फिर दाज्यू गौरव त्रिपाठी ने क्या कहा?
- उन्होंने हाथ जोड़कर घोषणा की कि हल्द्वानी और उत्तराखंड में कविता और व्यंग्य को और अधिक समृद्ध करने के लिए समय-समय पर कार्यक्रम होते रहेंगे।
- जे बात! तो भीमताल भ्रमण के साथ ही तुम्हारे दो दिवसीय यात्रा कार्यक्रम का समापन हो गया।
- नहीं भीमताल के बाद हम फिर से हल्द्वानी के मेले में गए।
- मेला दोबारा घूमने का कोई खास मकसद था?
- हाँ बिलकुल ख़ास मकसद ही था। दाज्यू सुमित प्रताप सिंह की ऊँट सवारी की तीव्र इच्छा को पूर्ण करना था और उन्हें मेले में कुछ खरीदारी भी करनी थी। अंततः दाज्यू गौरव त्रिपाठी द्वारा दिए गए स्वादिष्ट रात्रि भोज के साथ दूसरे दिन की समाप्ति हुयी। अगले दिन दाज्यू गौरव त्रिपाठी के पहले व्यंग्य संग्रह 'पैकेज का पपलू' और दूसरी पुस्तक 'दोराहे पर जिंदगी', जो कि कहानी व व्यंग्यों का कॉम्बो पैक है, को प्राप्त करने के साथ ही हल्द्वानी यात्रा का समापन संपन्न हुआ। दाज्यू गौरव त्रिपाठी हमें हल्द्वानी रेलवे स्टेशन तक इस भय से अपनी कार से छोड़ कर गए कि कहीं हम हल्द्वानी में ही न बस जाएँ।
- हा हा हा! दाज्यू हो सकता है हल्द्वानी से तुम्हें लगाव हो गया हो और यह लगाव ही उनके भय का कारण हो। वैसे तू हल्द्वानी से मेरे लिए कुछ लाया है या नहीं?
- दाज्यू तेरे लिए भी कुछ लाना था?
- देख दाज्यू अगर तू मेरे लिए कुछ नहीं लाया होगा तो आज से तेरी-मेरी कट्टी।
- अरे दाज्यू तेरे लिए हल्द्वानी की स्पेशल बाल मिठाई लाया हूँ। अब रूठना छोड़के मान जा और ले ये मिठाई खा।
- एक शर्त पर मानूँगा।
- कौन सी शर्त दाज्यू?
- अगली बार अपने साथ मुझे भी हल्द्वानी ले चलेगा। 
- हाँ हाँ क्यों नहीं दाज्यू। चल इसी बात पर बाल मिठाई से अपना मुँह मीठा कर।
- दाज्यू तो फिर हम एक-दूसरे को बाल मिठाई खिलाकर एक-साथ मुँह मीठा करते हैं।
- ठीक है दाज्यू।
 लेखक : सुमित प्रताप सिंह

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

व्यंग्य : नेक सलाह


     रा सोचिए इस महँगाई के दौर में यदि हमें कुछ मुफ़्त में मिल जाता है तो यह अचंभित होनेेवाली बात ही होगी। पर यह सुखद अनुभूति आप और हम अक्सर न चाहते हुए भी प्राप्त करते रहते हैं और हमें ऐसी सुखद अनुभूति प्रदान करने का कार्य करते हैं हमारे अगल-बगल में वास करनेवाले कुछ सलाहवीर, जो बिन माँगे अपनी सलाह हमारी झोली में डालकर अपनी राह को निकल लेते हैं। अब ये और बात है कि ऐसे सलाहवीर शायद ही अपनी सलाह को अपने ऊपर भी कभी आजमाते हों।
ऐसे ही एक सलाहवीर हमारे दूर के एक चाचा हैं। स्वास्थ्य के ऊपर जब भाषण देने को आएँ तो एक घंटे से पहले उनका मुख विराम नहीं लेता, लेकिन उन्होंने अपनी सलाह  अपने ऊपर आजमाने का कभी भी प्रयत्न नहीं किया। फल ये मिला कि एक दिन अचानक उनको हृदयाघात हुआ और उन्हें अपने हृदय की सर्जरी करवानी पड़ी। बावजूद इसके चाचा अपनी सलाहबाजी से बाज नहीं आए।
हमारे पड़ोस में एक ताई रहती हैं। वो हमारी कॉलोनी की जानी-मानी सलाहवीर हैं। कॉलोनी की हर लड़की के चरित्र पर शक करते हुए वो लड़कियों की माँओं को अपनी लड़की के चाल-चलन पर ध्यान रखने की सलाह देती रहती थीं। बहरहाल हुआ ये कि कॉलोनी की लड़कियों की चिंता में डूबी रहनेवाली ताई की इकलौती लड़की ही ताई के घरेलू नौकर के साथ घर से भाग गयी। अब इन दिनों ताई दूसरों की सलाह माँगती हुयीं  मिल जाती हैं। 
हमारे दफ्तर में भी एक सलाहवीर मौजूद हैं। उनकी सलाह का क्षेत्र शिक्षा है। वो अक्सर अपने सहकर्मियों को उनके बच्चों के भविष्य के विषय में शिक्षा संबंधी सलाह थोक के भाव में बाँटते हुए मिल जाते थे। उनसे भूल ये हुई कि उन्होंने अपने दोनों बेटों को सलाह देने का कभी भी समय नहीं निकाला। परिणाम ये हुआ कि उनके दोनों बच्चे अपनी-अपनी  कक्षाओं में सभी विषयों में चारों खाने चित हो गए। इस दुर्घटना से उन सलाहवीर के ज्ञान चक्षु खुल गए और उन्हें अनुभव हुआ कि उनकी सलाह की बाहर की अपेक्षा घर में अधिक आवश्यकता है।
ऐसे बहुत से सलाहवीर हमें अक्सर रोज ही मिलते रहते हैं, जो बिन माँगे अपनी सलाह हम पर थोपना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। आप कभी मुसीबत में पड़कर तो देखिए, आपके समक्ष सलाहवीर और उनकी अजब-गजब सलाह हाज़िरी बजाती हुयीं मिल जाएँगीं। उनके द्वारा भेंट की गयीं सलाह और कुछ करें या न करें पर आपकी मुसीबत में वृद्धि करने का सुकार्य अवश्य करेंगी। अब ये और बात है कि इन सलाहवीरों का व्यक्तिगत जीवन उलझनों से भरा ही मिल जाएगा। इसलिए कभी-कभी जी करता है कि इन सलाहवीरों को समझाते हुए कहूँ कि हे सलाहवीरो एक नेक सलाह मानिए कि आप अपनी सलाह का शुभारम्भ अपने घर से किया कीजिए क्योंकि यदि घर ठीक रहेगा तो समाज स्वस्थ रहेगा और स्वस्थ समाज ही देश की प्रगति में सहायक बनता है।


लेखक : सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत 
चित्र : गूगल से साभार 

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