शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

व्यंग्य यात्रा निकालते प्रेम जनमेजय

आदरणीय मित्रो
सादर ब्लॉगस्ते!
           आप सभी की व्यंग्य विधा से गुफ़्तगू तो होती ही रहती होगी। अरे नहीं मैं व्यंग्य के नाम पर अखबारों में छपते रहने वाले उल-जलूल और हास्य के नाम पर फूहड़ता लिए हुईं टिप्पणियों अथवा रचनाओं की बात नहीं कर रहा। मैं बात कर रहा हूँ उस व्यंग्य विधा की, जिसने समाज को नई दिशा देने का बीड़ा अपने काँधे पर धर रखा है। अब आप पूछेंगे कि व्यंग्य होता क्या है? व्यंग्य साहित्य का ऐसा अचूक अस्त्र है जो हृदय के भीतर तक मार करता है। यह समाज में विद्यमान विद्रूपताओं, विसंगतियों एवं मूल्यहीनता इत्यादि पर प्रहार कर उन्हें दूर करने का साहित्यिक प्रयास है। व्यंग्य वह विधा है जिसे प्रयोग करनेवाला तो मुस्कुराता है, लेकिन जो व्यंग्य का शिकार होता है वह क्षण भर के लिए तो तिलमिलाकर रह जाता है। देशी भाषा में इसे चुटकी या ताना भी कहा जा सकता है। कबीर के व्यंग्यात्मक दोहे तो आपको याद ही होंगे, कि कैसे उन्होंने दोहे की तलवार पर व्यंग्य की तेज धार लगाकर समाज की कुरीतियों पर प्रहार किया था। भारतेंदु से लेकर हरिशंकर परसाईं व शरद जोशी तक तथा उनके बाद अनगिनत व्यंग्य वीर हुए हैं जो अपने व्यंग्य बाणों से समाज से बुराइयों को समाप्त करने के लिए प्रयासरत रहे हैं।
           आज मैं आपकी भेंट करवाने जा रहा हूँ व्यंग्य क्षेत्र की एक विशेष हस्ती से जिनका नाम है प्रेम जनमेजय। प्रेम जनमेजय जी वैसे तो परिचय के मोहताज नहीं हैं फिर भी आप सभी सुधी पाठक जनों के लिए उनका लघु परिचय यह है, कि उनका जन्म 18 मार्च, 1949 ईसवी में इलाहाबाद (उ.प्र.) हुआ था। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और 1974 ईसवी से अध्यापन के क्षेत्र में हैं। वो ट्रिनिडाड और टोबैगो के वेस्टइंडीज़ विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर के पद पर कार्य कर चुके हैं। देश-विदेश में व्यंग्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त प्रेम जी पिछले नौ साल से देश-विदेश में चर्चित पत्रिका व्यंग्य यात्राके संपादन की बागडोर संभाले हुए हैं।
          हालाँकि आज वो अति व्यस्त हैं, क्योंकि आज उनके द्वारा व्यंग्य यात्रा का आयोजन किया जा रहा है। हर तीसरे महीने इस यात्रा का आयोजन किया जाता है। इस बार यह यात्रा युवा व्यंग्यकारों को व्यंग्य लेखन में प्रोत्साहित करने के लिए शरद जोशी जी की याद में आयोजित की जा रही है और प्रेम जी घर से आरंभ होकर भारत भर में होते हुए शरद जोशी जी के घर की ड्योढ़ी को नमन करके वापस प्रेम जी के घर पर ही आकर समाप्त होगी। इसलिए मैंने यह निर्णय लिया है कि मैं भी इस यात्रा का साक्षी बनूँगा, क्योंकि इस बहाने कुछ ज्ञान भी मिलेगा और प्रेम जी का साक्षात्कार लेने भी लेने का अवसर मिल जाएगा।
                  देश भर से आए व्यंग्य शिक्षकों व प्रशिक्षुओं के एक स्थान पर एकत्र होते ही व्यंग्य यात्रा का शुभारंभ कर दिया गया। एक वरिष्ठ व्यंग्यकार ने व्यंग्य यात्रा में आने का वादा किया और एन वक्त पर न आने के लिए अपनी बूढ़ी माँ की बीमारी का बहाना मार दिया। मजे की बात यह है, कि उनकी माँ व्यंग्य यात्रा के शुरू होने पर ही सभी व्यंग्यकारों को अपना शुभाशीष प्रदान कर गईं हैं। इस यात्रा में एक-दूसरे के धुर विरोधी लोगों के एकत्र होने के बारे में पूछने पर यात्रा में शामिल प्रेमचंद साहित्य के अध्येता कमलकिशोर गोयनका जी ने बताया, “प्रेम जनमेजय के लिए व्यंग्यकार केवल व्यंग्यकार है। वह वाम या या दक्षिणा, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. इसलिए व्यंग्य यात्रा का मंच सबका मंच है व्यंग्य की कोई जाति व धर्म अथवा कोई विशिष्ट विचार नहीं है। उसमे सभी प्रवेश कर सकते हैं और अपनी दृष्टि से व्यंग्य लिख सकते हैं।”
          यात्रा कुछ दूर आगे ही बढ़ी थी कि एक युवा व्यंग्यकार ने प्रेम जी से उनका परिचय पूछ डाला। प्रेम जी सादगी से बोले, “आप काहे मुझ नाचीज से इतना महत्वपूर्ण सवाल करने का कष्ट कर रहे हैं। जब आप मेरे संक्षिप्त परिचय से ही अनभिज्ञ हैं और मुझे ही उससे आपको परिचित कराना है तो आपकी नजरों से अपरिचित इस प्रेम जनमेजय को अपरिचित ही रहने दें। दूसरे लेखक जब अपना परिचय देने लगता है तो उसे लगता है कि उसने बहुत संक्षिप्त दिया और परिचय लेने वाले को लगता है कि उसने द्रौपदी के चीर-सा कर दिया जिसे कोई कृष्ण ही समाप्त कर सकता है। मेरा संक्षिप्त परिचय इतना ही है कि मेरा नाम प्रेम जनमेजय है।इस परिचय को सुनकर सभी व्यंग्यकारों ने तालियाँ पीट डालीं। मैं प्रयास करके प्रेम जी के बगल में पहुँचने में कामयाब हो चुका हूँ और अब साक्षात्कार आरंभ होता है।

सुमित प्रताप सिंह- प्रेम जनमेजय जी नमस्कार!
प्रेम जनमेजय- नमस्कार सुमित कैसे हो?
(युवा व्यंग्यकार भी आदरवश प्रेम जी को नमन कर रहे हैं।)

सुमित प्रताप सिंह- जी आपके आशीर्वाद से मैं बिल्कुल ठीक हूँ। कुछ प्रश्न लाया था अपनी पोटली में। यदि आपकी आज्ञा हो तो अपनी पोटली खोलूँ।
प्रेम जनमेजय- अब ले आए हो तो व्यंग्य यात्रा का आनंद व इससे कुछ सार्थक सीख लेते हुए लेते हुए अपनी पोटली से प्रश्नों को निकालकर पूछते रहो।
(प्रेम जी के ऐसा कहते ही युवा व्यंग्यकारों के कान उनकी ओर लग गए। उन्हें लगा कि प्रेम जी के माध्यम से उन सबको कुछ न कुछ ज्ञान मिलनेवाला है।)

सुमित प्रताप सिंह-  आपको ब्लॉग लेखन की बीमारी कब और कैसे लगी?
प्रेम जनमेजय- मेरी प्रकृति है कि मैं तकनीक के क्षेत्र में उपस्थित नए उपकरणों आदि से घबराता नहीं हूं अपितु चुनौती मानकर उससे दो-दो और कभी दो-चार हाथ भी कर लेता हूं। कुछ भी नया मेरे आसपास घटता है उसे परखने का प्रयत्न करता हूं। अब चाहे वो मोबाईल हो, फेसबुक हो अथवा ब्लॉग लेखन।  इस प्रक्रिया में मैं अपने से युवा पीढ़ी को गुरु मानता हूँ। अपने पुत्र, युवा मित्रों से मैं एक अच्छे शिष्य की तरह शिक्षित होता हूँ। मेरा मानना है कि ब्लॉग या फेसबुक अभिव्यक्ति के माध्यम उसी प्रकार हैं जैसे नाटक या फिल्म आदि। निर्भर करता है कि आप इन माध्यमों का प्रयोग किस नीयत और किस दृष्टि के साथ करते हैं। ब्लॉग लेखन भी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और इसका संतुलित प्रयोग आपके विचारों को विस्तृत करता है। ब्लॉग लेखन को मैंने नए माध्यम के प्रयोग के रूप में आरंभ किया था पर बाद में देखा कि मेरे पास अभिव्यक्ति के अन्य माध्यम भी हैं। अतः मैंने धीरे-धीरे इसका प्रयोग कम कर दिया। मेरे लिए यह बीमारी नहीं अभिव्यक्ति का माध्यम है।
(एक तथाकथित बड़े व्यंग्यकार, जो स्वयं को बड़ा इसलिए मानते हैं क्योंकि उनकी बड़ी कार है और वो ऐसा कुछ लिखते हैं जिसे वो व्यंग्य कहते हैं, अपनी कार पंक्चर होने के कारण नुक्कड़ पर बैठे रो रहे हैं और व्यंग्य यात्रा में सम्मिलित न होने के कारण दुःख के मारे रोते-रोते मूर्छित से हो गए हैं।)

सुमित प्रताप सिंह- आपकी पहली रचना कब और कैसे रची गई?
(इस प्रश्न को पूछने से पहले मैं प्रेम जी से कहना चाहता हूँ, कि ब्लॉग वह स्थान है जहाँ पर आपका लेखन स्थायी रूप से सुरक्षित रहता है और फेसबुक वह अंतरजालीय ठिकाना है, जिस पर एक महीने पहले डाली गई पोस्ट भी ऐसे ठिकाने लग जाती है, कि उसे ढूँढते-ढूँढते दिमाग ठिकाने लग जाता है। इसलिए ब्लॉग लिखते रहिये। किन्तु शायद यह सब कहने का अभी उपयुक्त समय नहीं है। चलिए कभी और सही।)
प्रेम जनमेजय- जैसे हिन्दी का लगभग हर लेखक अपना आरम्भिक लेखकीय जीवन, काव्य लेखन के साथ करने के लिये विवश है, मैंने भी किया । परन्तु कविता के साथ कहानी की भी शुरुआत  हो गयी । 1963-1966 के बीच मैं रामकृष्णपुरम् सेक्टर दो के सरकारी स्कूल की नवीं कक्षा में पढ़ता था और विज्ञान का छात्र था । हमारे अंग्रेजी के अध्यापक श्री बत्रा के प्रयत्नों के फलस्वरूप पहली बार किसी सरकारी विद्यालय ने अपनी पत्रिका निकालने का स्वप्न पूरा किया । मैंनें उस पत्रिका में,1965 में, अंग्रेजी की एक कविता के माध्यम से, अपना तुच्छ योगदान दिया । 
      कविता जब प्रकाशित होकर आई तो अपनी ही कविता को छपा देखकर तथा उसकी प्रशंसा सुनकर मन और रचनायें लिखने को प्रेरित हुआ । गर्मी की छुट्टियां होने वाली थीं और अध्यापक पढ़ाने में कम तथा अपने रजिस्टर और डायरियां लिखने में अधिक रुचि ले रहे थे। ऐसे में पिछले बैंच में बैठकर मैंनें और मेरे सहपाठी मित्र सुदर्शन शर्मा ने एक कहानी लिखी छुट्टियां । सुदर्शन अब इस दुनिया में जिंदा नहीं है और न ही उसके साथ लिखी वह कहानी ही किसी पत्रिका के पन्नों में जिंदा है, पर उसकी यादें आज भी किसी ताजा रचना की तरह जिंदा हैं । विज्ञान की पढ़ाई तथा दोबारा पत्रिका न प्रकाशित होने की विवशता ने उस कहानी को किसी अनाम कोने में जैसे गुम कर दिया, पर मेरे अंदर लिखने की इच्छा अपने पंख तलाशती रही ।  
       ग्यारहवीं की परीक्षा देने के बाद मेरे पास कुछ करने को न था । बात 1966 की है । उन दिनों इंजीयनियरिंग आदि परीक्षाओं के लिए गर्मियों की छुट्टियों का बलिदान नहीं करना पड़ता था। मेरे अंदर का लेखक फिर जागा और मैंनें एक प्रेम-कथा लिखी कल आज और कल। इसे मैंने गाजियाबाद से उन दिनों अपने शीघ्र प्रकाशन की घोषणा करने वाली पत्रिका  खिलते फूल में भेज दिया । कहानी 1966 में प्रकाशित हो गई । हायर सैकेंडरी का परिणाम  आया और मैंने अपने अंदर के लेखक की उपेक्षा कर मैथर्स आनर्स ले लिया। मेरी कहानी भी खिलते फूल के जुलाई अंक में प्रकाशित होकर आ गई। उन दिनों डॉ. महेंद्र कुमार मोतीलाल कॉलेज; जो उन दिनों हस्तिनापुर कॉलेज के नाम से जाना जाता, के हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे।  कहानी हिंदी में प्रकाशित हुई थी तो मुझे उसे हिंदी के अध्यापक को ही दिखाना था, मैथ्स के अध्यापक को तो नहीं दिखाना था। मैथ्य के अध्यापक के लिए तो वह बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद” जैसा मामला था। डॉ. महेंद्र कुमार उन दिनों हिंदी ऑनर्स का पहला बैच तैयार कर रहे थे। हिंदी ऑनर्स में अक्सर वे विद्यार्थी जाते हैं जिन्हें किसी और ऑनर्स में प्रवेश नहीं मिलता है। डॉ. महेंद्र कुमार ने देखा कि ये लड़का लेखन में रुचि रखता है तो इसे हिंदी ऑनर्स का विद्यार्थी बना ही लो। दूसरे शब्दों में कहूं तो उन्होंने मुझे फंसा लिया और मेरा ऐसा ब्रेन वाश किया कि मैंने अपने पिताजी के सामने हिंदी ऑनर्स करने का प्रस्ताव, बड़ी हिम्मत के साथ, रख दिया। आप तो जानते ही हैं कि हमारी पीढ़ी अपने पिता से भी पिटी और आज अपने बच्चों से भी...। उन दिनों हिंदी के समर्थन के लिए आंदोलन हो रहे थे और लग रहा था कि आने वाला समय हिंदी का है। वैसे भी मेरे पिताजी ने हम बच्चों को पढ़ने-लिखने के संदर्भ में बहुत स्वतंत्रता दी हुई थी। मैंने विज्ञान का त्याग किया और साहित्य में प्रवेश किया। यह एक सही फैसला सिद्ध हुआ। इसने मेरे जीवन की धारा ही बदल दी। नरेंद्र कोहली और कैलाश वाजपेयी के रूप में मुझे साहित्यिक एवं अध्यापकीय गुरु मिले। कहानी, कविता लिखना, विभिन्न प्रतियोगिताओं में जाना, पुरस्कार प्राप्त करना जैसे मेरे जीवन का अंग बन गया ।
मैंने सन् 1966 से 1969 के बीच केवल कहानियां और कविताएं लिखीं। व्यंग्य लेखन मेरे जीवन में तब आया जब मैंने सन् 1969 में, एम.ए. में प्रवेश लिया। प्रेम जनमेजय उपनाम से मैंनें पहली व्यंग्य रचना राजधानी में गंवार अगस्त, 1969 लिखी जिसे मैने, नरेंद्र कोहली द्वारा आयोजित, लेखक-मंडल की गोष्ठी में पढ़ा। इस रचना को लगभग सबने पसंद किया, नरेंद्र कोहली ने भी परंतु कुछ किंतु-परंतु के साथ। ये पहली रचना थी जिसे मैंनें सरोजनी नगर में टाइप सीखने जाने वाली दुकान में स्वयं हिंदी में टाईप भी किया।
(अचानक ही एक बुजुर्ग व्यक्ति अपने चेहरे को मैली धोती से ढांके हुए व्यंग्य यात्रा की भीड़ में सम्मिलित हो गए। उन्होंने युवा व्यंग्यकारों के हाथ में लिए व्यंग्यों को अपनी कनखियों से पढ़कर फटाफट एक व्यंग्य रचकर प्रेम जनमेजय जी के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। प्रेम जी ने उनकी चोरी पकड़ ली और चुपचाप उस व्यंग्य को फाड़कर एक ओर फैंक दिया।)

सुमित प्रताप सिंह-  आप लिखते क्यों हैं?
प्रेम जनमेजय- मैं क्यों लिखता हूं, एक अच्छा प्रश्न है किसी लेखक से । आखिर वे क्या सामाजिक सरोकार हैं, वे क्या परिस्थितियां है जो आपको लिखने के लिए विवश करती हैं? लेखन मेरी दिनचर्या का हिस्सा हो गया है । जैसे बिन खाए मन भटका-भटका रहता है, बिन सोए तबीयत गड़बड़ा जाती है, बिन नहाए शरीर बेचैन हो जाता है और बिना पानी के सब सून लगने लगता है वैसे ही बिना लिखे अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है । स्वस्थ एवं लम्बे जीवन के लिए जैसे आपकी दैनिक आवश्यकताएं आवश्यक हैं वैसे ही मेरे लिए लेखन भी आवश्यक है। बिन सोए मेरा काम चल सकता है पर यदि रचना दिमाग में अपना खाका बना रही है तो उसे लिखे बिना नींद नहीं आएगी। 
आप भी कहेंगे कि ये कलम घसीटी तो ठीक है, पर ये व्यंग्य-घसीटी क्यों ? ऐसी भी क्या विवशता है कि व्यंग्य ही लिखा जाए ?
      मेरे विचार से न तो कोई विधा महत्वपूर्ण होती है और न ही कोई माध्यम, महत्वपूर्ण होती है विषयवस्तु। पहले आता है कि आप कहना क्या चाहते हैं और बाद में आता है कि आप उसे कहते कैसे हैं। चाहे वह कवि हो, कहानीकार हो,  नाटककार या व्यंग्यकार-सभी हैं तो मूलतः साहित्यकार। व्यंग्य-लेखन साहित्य लेखन से अलग की वस्तु नहीं है। क्या व्यंग्यकार के सामाजिक सरोकार वही नहीं हैं जो एक कथाकार, कवि या नाटककार के हैं? वैसे तो रचना अपनी विधा स्वयं तलाश लेती है। मुझे व्यंग्य के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करना अध्कि सहज लगता है। जब समाज अनैतिक होता है और नैतिकता के ठेकेदार नैतिकता के छद्म में अपने अनैतिक कर्म सफल बनाते हैं तभी तो व्यंग्यकार की रचनात्मक भूमिका जन्म लेती है। जब आंकडा़ छत्तीस का हो और उसे तरेसठ का सिद्ध करने में सिद्धहस्त व्यस्त हों, तभी तो व्यंग्यकार उस विसंगति को उद्घाटित करने के लिये अपना रचनात्मक विरोध् रजिस्टर करता है । आज राजनीति, समाज, धर्म, साहित्य आदि में जो मूल्यहीनता की स्थिति है तथा जिस प्रकार हमारी वर्तमान व्यवस्था आक्रोश के स्थान पर पलायन के भाव को भरना चाहती हैं, आर्थिक प्रगति के नाम पर विरोध के प्रजातान्त्रिक  अधिकार को कुंद करना चाहती है  उसके चलते व्यंग्य की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है । आज का समय विसंगतियों से भरा हुआ है और एक चकाचौंध में सामाजिक सरोकार तथा मानवीय मूल्य धुंधलाते जा रहे हैं । अस्मिता पर लुके-छिपे हमले हो रहे हैं । ये सब ईमानदार मस्तिष्क पर निरंतर अपने प्रभाव छोड़ते रहते हैं । आपका अवचेतन कभी भी नहीं सोता है, ये दीगर बात है कि कुछ महानुभाव उसके जागरण को महत्व ही नहीं देते हैं । पर लेखक-कर्म अपनाते ही आप अपने अवचेतन की सक्रियता को उपेक्षित नहीं कर सकते । 
लेखन-कर्म को ईमानदारी से अपनाते ही आप अति-संवेदनशीलता के रोगी हो जाते हैं। वैसे इसे इस प्रकार कहना अधिक उचित होगा कि अधिक संवेदनशील होने के कारण आपको लेखन का रोग लगता है। जिस बात को लोग हवा में उड़ा देते हैं आप उसे हवा में उछल-उछल कर पकड़ते हैं । आम आदमी अपने चैन का मार्ग ढूंढता है और ये  लेखक नामक अव्यवहारिक जीव स्वयं तो बेचैन होता है दूसरों को भी करता है । मैं भी ऐसा ही अव्यवहारिक जीव हूं । पत्नी अनेक बार कांतासम्मित उपदेश दे चुकी है कि संसार तो ऐसे ही चलेगा, तुम क्यों अपने जान हलकान करते हो । पर यहां आलम ये है कि समाज में घटित किसी विसंगति को देख-पढ़ सुनकर नींद क्यों रात भर आती नहीं के सवाल घेरने लगते हैं । कोई विचार जब कौंधता है तो जब तक वो आकार नहीं ले लेता मन बेचैन रहता है और उसकी बेचैनी देख पत्नी बेचैन रहती है । 
                      मेरे लिए व्यंग्य  रचना करना सीधा साधा रास्ता नहीं है । ये वो प्रेम का मार्ग नहीं है जहां सूधे सनायप बांक नहीं अपितु ये तो दोधरी तलवार या फिर आग का दरिया है । मेरे ये टेढ़े-मेढ़े रास्ते मेरे हितचिंतकों को धीरे-धीरे समझ आए हैं । पहले तो भरी एवं सक्रिय महफिल में मस्तिष्क में कोई भी विचार कौंधने पर यकायक मौन हो जाने पर मित्रों को अजीब लगता और पत्नी हाथ छूकर देखती कि कहीं मेरी तबीयत तो खराब नहीं हो गई । जैसे कोई भ्रूण धीरे-धीरे आकार लेता है और एक दिन ईश्वर की अप्रतिम रचना के रूप में प्रकट हो जाता है  वैसे ही रचना जन्म लेती है । जैसे जन्म से पहले भ्रूण में अनेक परिवर्तन होते हैं तथा नवजात अपने जन्म से पहले कई बार मीठा-मीठा दर्द देता है वैसे ही लेखक हो या लेखिका, दोनों सृजन-सुख के लिए ये पीड़ा तो उठाते ही हैं। किसी सृजन का अपना आकार ग्रहण करने में समय लगता है और किसी की प्रीमैच्योर डिलिवरी हो जाती है। 
(प्रेम जी व्यंग्य के नाम पर युवाओं की बढ़ती भीड़ से हल्का सा घबराये तो राँची से पधारे बालेन्दु शेखर तिवारी जी उनके कान में फुसफुसाकर बोले, “प्लीज इन नवोदित दीयों को अपने ढंग से जलने दें। निर्मम झंझावात में तेज तर्रार दियों का ही अस्तित्व सुरक्षित रहेगा। जिन दीयों में तेल-बाती की कमी होगी, उनका अपने आप अंत हो जाएगा।”)

सुमित प्रताप सिंह-  लेखन में आपकी प्रिय विधा क्या है?
प्रेम जनमेजय- व्यंग्य।
(प्रेम जी के इस लघु व सटीक उत्तर पर जहाँ युवा व्यंग्यकार अचंभित हो रहे हैं, वहीं इस यात्रा में सहभागिता दर्ज करने आईं वरिष्ठ रचनाकारा सूर्यबाला जी महिला व्यंग्यकारों को हिदायती सुझाव दे रही हैं, “महिला व्यंग्यकारों को व्यंग्य शिल्प की अपनी बेहतर बानगीको थोड़ी और धार देनी होगी क्योंकि महिलाओं की अति अल्पसंखियकी का मारा हिन्दी व्यंग्य-लेखन स्त्री व्यंग्यकार को ज्यादा सद्य दृष्टि से पढ़ता-जाँचता है और यह हमारे हित में है।”)

सुमित प्रताप सिंह-  अपनी रचनाओं से समाज को आप क्या संदेश देना चाहते है?
प्रेम जनमेजय- अभी तो मैं ही संदेश ग्रहण करने की मुद्रा में हूँ। मैं कोई मठाधीश नहीं हूँ और न ही राष्ट्र का प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति कि किसी अवसर पर संदेश देने जैसा कोई कर्तव्य निभाउं। मैं तो आपसी संवाद में विश्वास करता हूँ। संवाद निरंतर रहना चाहिए और संवाद में हमारा वर्तमान और भविष्य परिभाषित हो जाता है।
वर्तमान विसंगतियों पर हंसना पलायन होगा और इनपर आक्रमण करना बेहतर मानवीय समाज की दिशा में उठाया गया सार्थक कदम। इन विसंगतियों लड़ने का एक मात्र हथियार व्यंग्य ही है। आज व्यंग्य, बदलते सामाजिक परिवेश में उत्पन्न विसंगतियों के विरुद्ध लड़ाई का एक सार्थक हथियार बन गया है। सामयिक परिवेश में अवसाद, मूल्यहीनता, एकाकीपन आदि की उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए व्यंग्य ही एक उपयुक्त माध्यम है। आज राजनीति, समाज, धर्म, साहित्य आदि में जो मूल्यहीनता की स्थिति है तथा जिस प्रकार हमारी वर्तमान व्यवस्था आक्रोश के स्थान पर पलायन के भाव को भरना चाहती हैं, आर्थिक प्रगति के नाम पर विरोध के प्रजातांत्रिक अधिकार को कुंद करना चाहती है उसके चलते व्यंग्य की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
व्यंग्यकार पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह जीवन को ऋणात्मक दृष्टिकोण के साथ देखता है। उसे जीवन में कुछ भी सुंदर नहीं दिखाई देता है । वह तो हर समय आक्रोश के इंजन से भरा सांप की तरह फुंफकारता चलता है। यह सच है कि व्यंग्यकार की दृष्टि सौंदर्य की वायवी दुनिया में नहीं विचरती है, वह तो एक चिकित्सक की तरह मेज पर पड़ी सुंदरी के सुंदर मुखड़े को नहीं उसके शरीर के सड़े फोड़े को देखता है, जिससे मवाद बह रहा है। वह उस फोड़े पर चीरा लगाता है, जिससे घाव ठीक होने पर वह पुनः सुंदरी हो जाएगी। वह नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ाता है अपितु नैतिकता का पाठ पढ़ाने की आड़ में अनैतिकता का खेल खेलने वालों के मुखौटे उतारता है । वह मानवीय सभ्यता में आ रही सड़ांध को रोकने के लिए जुटा रहता है। व्यंग्य प्रघात- चिकित्सा में विश्वास करता है न कि अपने ही समाज के एक अंग को विच्छिन्न कर देने में। उसकी दृष्टि, जीवन को सुंदर बनाने के लिए असुंदर पर ही टिकती है । व्यंग्यकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि कैसे वह आलोचनात्मक तथा आक्रोशपूर्ण भाव को प्रघात चिकित्सा में परिणत करे। व्यंग्यकार इस अर्थ में विशिष्ट है कि वह प्रेमगीत नहीं लिखता है और न ही चाँदनी रात में नौका विहार करता है। उसकी हर सोच सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होती है। 
यह मानकर न चला जाए कि व्यंग्यकार कोई विचित्र प्राणी हैं। व्यंग्यकार भी साहित्यकार है और उसके वही सामाजिक सरोकार हैं जो साहित्य के होते हैं। मैं साहित्यकार हूं और मानव समाज की बेहतरी के लिए अपना वैचारिक योगदान देने के लिए लिखता हूँ।
(प्रेम जी के मोबाईल फोन पर बार-बार शरद जोशी जी की पुत्री नेहा शरद के संदेश आ रहे हैं, जो कि धमका रहे हैं कि इस यात्रा को तुरंत बंद किया जाये, पर व्यंग्यकारों की एकता की शक्ति प्रेम जी के तन-मन में जोश भर रही है और वो उन संदेशों को मुस्कुराकर डिलीट करते जा रहे हैं।)

सुमित प्रताप सिंह-  एक अंतिम प्रश्न,  सोशल मीडिया पर हिंदी लेखन द्वारा हिंदी साहित्य में योगदान इस विषय पर आप कुछ विचार रखेंगें?
प्रेम जनमेजय- सुमित जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि सोशल मीडिया भी अन्य माध्यमों की तरह एक माध्यम है, निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का हमारा उद्देश्य क्या है। क्या हम मात्र अपनी उपस्थिति दर्ज कराने अथवा अपना नाम प्रकाशित देखकर प्रसन्न होने की मनोग्रथी से ग्रसित उसका प्रयोग कर रहे हैं अथवा किसी रचनात्मक कार्य के लिए। बहुत आवश्यक है कि इसे गंभीरता से लिया जाए। सार्थक साहित्य का एक-एक शब्द बहुत महत्वपूर्ण होता है। शब्द बहुत दूर तक मार करता है। इस दृष्टि से बहुत आवश्यक है कि सोशल मीडिया का सावधानी से प्रयोग किया जाए। इस समय जो सामने आ रहा है, उससे मैं संतुष्ट नहीं हूँ। बहुत कुछ कबाड़ सामने आ रहा है। पर कुछ अच्छे प्रयोग भी सामने आ रहे हैं। ऐसे प्रयोग स्वागत योग्य हैं।
(अब हम शरद जोशी जी के घर के बंद दरवाजे की ड्योढ़ी पर पहुँच चुके थे। एक भारी-भरकम  युवा रचनाकार ने इस सुअवसर का लाभ उठाया और अपनी अगली पुस्तक को प्रेम जी को देते हुए फोटो खिंचवाकर फेसबुक पर इस खबर पर अपडेट कर दिया है और अपने फेसबुक मित्रों की बधाई रुपी टिप्पणियों व लाइकों पर प्रफुल्लित हो रहे हैं। प्रेम जी उस युवा व्यंग्यकार की भोली मुस्कान को नज़र से बचाने के लिए उसकी गाँधी छाप मुद्रा से नज़र उतार ली है।)

सुमित प्रताप सिंह- प्रेम जी आपका बहुत-बहुत आभार जो आपने अपना इतना समय और अपना स्नेहिल सानिध्य दिया। अब मुझे अपना आशीर्वाद एवं आज्ञा दें ताकि मैं अपनी अगली मंज़िल की ओर निकल सकूँ।
प्रेम जनमेजय- तुम्हारा भी धन्यवाद और आगामी भविष्य के लिए शुभाशीष एवं शुभकामनाएँ।
(साथियो यह इस यात्रा का अंत नहीं है। हम फिर मिलेंगे। तब तक के लिए सादर व्यंग्यस्ते!)

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