शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

व्यंग्य : लिफ़ाफे के भीतर


   हर की उस छोटी सी कॉलोनी में उस रोज विद्रोह की सुगबुगाहट होने लगी, जब उस कालोनी की सीवर लाइन जाम हो जाने के कारण बिजली घर पूरी तरह भर गए। मज़बूरन बिजली विभाग के कर्मचारियों को उस कालोनी की बिजली की सप्लाई काटनी पड़ी। मई के गर्म महीने में बिना बिजली के कॉलोनीवालों के तपते हुए शरीरों में उनके मस्तिष्क भी बुरी तरह तपकर भट्टी का रूप धारण कर चुके थे। कॉलोनीवालों के एक परिचित पत्रकार से उनकी दुर्दशा न देखी गई और उसने जिम्मेदारी संभाली कि वह अपने अख़बार के माध्यम से कॉलोनीवासियों की समस्या का समाधान करने का भरकस प्रयत्न करेगा। जब वह पत्रकार उस कॉलोनी में अपने फोटोग्राफर के साथ उस खबर को कैद करने के लिए पहुँचा तो वहाँ परेशान कॉलोनीवासियों के दुखों को सुनकर उसकी भी आँखें भर आईं। उसने उस कॉलोनी की समस्या को राई का पहाड़ बताकर अपने अख़बार में प्रमुखता से छपवाया। अख़बार में खबर आते ही नेता व सम्बंधित विभागों के अधिकारी गण आकर कॉलोनी में हाजिरी लगाने लगे। पत्रकार भी इस दौरान कॉलोनी में हाज़िर रहा। उसने एक बात महसूस की कि कोई भी नेता अथवा अधिकारी कॉलोनी में आता तो चुपचाप एक बंद लिफाफा कॉलोनी की एसोसिएशन के अध्यक्ष के हाथों में पकड़ाकर चला जाता। लिफाफा हाथ में आते ही अध्यक्ष महोदय बाकी कालोनी वासियों के साथ चुपचाप अपने-अपने घरों में विश्राम करने चल पड़ते। कई दिनों तक यह सिलसिला चला। पत्रकार इस दौरान शांत होकर इस सारी प्रक्रिया का साक्षी बना रहा। अब उस पत्रकार को अध्यक्ष के लिफाफा लेने की क्रिया पर बहुत क्रोध आने लगा था। उसने काफी सोच-विचार के उपरांत यह अनुमान लगाया कि हो न हो अध्यक्ष महोदय को इस बात को यहीं दबाने के एवज में लिफाफे में बंद करके गुपचुप तरीके से रकमरूपी रिश्वत दी जा रही है जिसमें कालोनीवालों की भी गुप्त सहमति है। पत्रकार ने निश्चय किया कि वह अध्यक्ष और कॉलोनीवालों को अकेले-अकेले रकम नहीं डकारने देगा। अब वह अगले दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगा। अगले दिन एक और अधिकारी महोदय कॉलोनी में पधारे और कुछ देर के विचार-विमर्श के पश्चात उन्होंने भी अध्यक्ष की ओर चुपके से एक लिफाफा बढ़ा दिया, जिसे पत्रकार ने चीते सी फुर्ती दिखाकर अध्यक्ष का प्रतिनिधि बताकर बीच में ही झटक लिया। उस अधिकारी के चले जाने के बाद पत्रकार ने अनुभव किया कि लिफाफे के भीतर कुछ हलचल हो रही है। 
पत्रकार ने घबराते हुए पूछा, "कौन है लिफ़ाफ़े के भीतर?" 
तभी लिफाफे का मुँह थोड़ा सा खुला और उससे से आवाज आई, "जी मैं आश्वासन हूँ"।

सुमित प्रताप सिंह 
इटावा, नई दिल्ली, भारत 


शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

व्यंग्य : शोध


    मेवालाल मस्तपुरा गाँव के मुख्य रास्ते पर खड़ा हुआ था. उस गाँव के प्रधान से मेवा लाल को ज्ञात हुआ था कि जिस जगह वह खड़ा हुआ था वह गाँव की मुख्य सड़क थी. उसने कड़ी मशक्कत की ताकि वह यह जान सके कि आखिर किस कोण से वह सड़क की श्रेणी में रखी जा सकती थी? सड़क होने का कोई भी तत्व उसके भीतर फिलहाल तो कोई दिखाई नहीं दे रहा था. फिर मेवालाल को प्रोफेसर साब ने शोध के लिए भला वह सड़क ही क्यों दी. अब मेवालाल को अपनी थीसिस उसी सड़क पर, जो न होकर भी शायद थी, लिखनी थी. उसको बिल्कुल भी समझ नहीं आ रहा था कि गाँव के उस कच्चे रास्ते को सड़क बनाकर वह थीसिस आखिर लिखे भी तो कैसे लिखे? गाँव का प्रधान बेशक कहता रहे कि वह कच्चा रास्ता नहीं डामर की पक्की सड़क है लेकिन उस गाँव के बच्चे-बच्चे ने मेवालाल के पूछने पर साफ़-साफ़ बताया है कि वह सिर्फ और सिर्फ कच्चा रास्ता है. फिर प्रधान के कहने पर कच्चा रास्ता भला पक्की सड़क कैसे बन सकती है. हालाँकि प्रधान ने मेवालाल को सरकारी कागजात दिखाकर अपना पक्ष सही सिद्ध करने की कोशिश की थी. उसने मेवालाल को सरकारी कागजों में सड़क के मौजूद होने के सारे सबूत दिखाये और समझाया कि मेवालाल जिसे कच्चा रास्ता समझने की इतने दिनों से भूल कर रहा था वह वास्तव में पक्की सड़क ही थी लेकिन मेवालाल के मन ने फिर भी कच्चे रास्ते को पक्की सड़क मानने से साफ़ इंकार कर दिया. हालाँकि मेवालाल प्रोफेसर साब का बहुत आदर करता था और वह यह भी जानता था कि प्रोफेसर साब उसे कभी भी गलत निर्देश नहीं देंगे लेकिन जब कहीं पर सड़क नाम की कोई चीज हो ही न तो भला कैसे मान लिया जाये कि वो सड़क है. या फिर ऐसा हो सकता है कि यह कोई दिव्य सड़क हो जो सिर्फ सरकारी कागजों में ही दिखाई देती हो. मेवालाल ने वहीं खड़े-खड़े काफी देर तक गंभीर आत्ममंथन किया और प्रोफेसर साब को फोन मिलाकर उन्हें अपनी शंका से परिचित करवाकर उस कच्चे रास्ते को पक्की सड़क न मानने का निर्णय सुना दिया. बदले में उस ओर से प्रोफेसर साब की फटकार मिली और उन्होंने अगली शाम उसे प्रधान के घर पर हाजिर होने का निर्देश दिया. अगली शाम मेवालाल को प्रधान के घर पर प्रोफेसर साब के साथ-साथ उस क्षेत्र के जिलेदार, तहसीलदार व पटवारी उपस्थित मिले. उस रात को रंगीन बनाने में प्रधान ने कोई कसर नहीं छोड़ी और उसी रात मेवालाल को इस परम ज्ञान की अनूभूति हुई कि जिसे वह इतने दिनों से कच्चा रास्ता समझने की भूल कर रहा था वह तो वास्तव में एक अच्छी-खासी सड़क थी और ऐसी दिव्य सड़कों को सिर्फ दिव्य दृष्टि रखनेवाले ही देख सकते हैं. इस परम ज्ञान को प्राप्त करने के बाद मेवालाल  ने अपनी थीसिस तैयार करने में कड़ा परिश्रम किया. थीसिस तैयार करने में मेवालाल को मस्तपुरा गाँव के प्रधान ने भरपूर सहयोग दिया. थीसिस पूरी होने के बाद प्रोफेसर साब के आशीर्वाद से मेवालाल का शोध कार्य संपन्न हुआ और मेवालाल को मेवालाल से डॉक्टर मेवालाल बनने में अधिक समय नहीं लगा. 


सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत 
कार्टून गूगल बाबा से साभार 

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