सोमवार, 17 मार्च 2014

होली तो हो ली

सुबह-सबेरे उठकर
जो आँख अपनी खोली
व्हाट्स एप्स पे संदेशा पाया
आज है जी होली
फेसबुक पर चली फिर
हँसी और ठिठोली
लाइक-कमेंट के भँवर में
दुनिया तो खो ली
गूगल प्लस पर दिखी
रंग-बिरंगी  रंगोली
मित्रों को शेयर कर दी
वो होली की रंगोली
ट्विटर पर चीं-चीं करें
सखा और सहेली
होली तो बन गई
बस इंटरनेट की सहेली
न तो गुलाल लगा
न ही रंग चिपटा बदन से
पर पूरे जग ने मना ली
मजेदार होली
अब याद आ रही है
वो फाग की मस्ती
वो यारों का संग
वो अपनों की बस्ती
जो अब तक न छूटे
वो प्यार के गाढ़े रंग
कभी बसती थी दिलों में
वो स्नेह-प्रेम की उमंग
हमें एक करके भी
छीन लिया एका
वर्चुअल संसार ने लिया
जबसे त्यौहारों का ठेका
इंटरनेट से हुई थी शुरू
जो धमाकेदार होली
वो यहीं से शुरू
और यहीं खत्म हो ली
अब लोग आउट कर
बंद करें हँसी-ठिठोली
होली तो यारो
कबकी हो ली.

सुमित प्रताप सिंह


इटावा, दिल्ली, भारत 
चित्र गूगल से साभार 

सोमवार, 10 मार्च 2014

सच्चा प्यार (कविता)


जब तू मिलेगी
किसी मोड़ पर
तो तुझे बताऊंगा 
कि तुझसे प्यार था सच्चा
फिर तू पूछेगी मुझसे
कि जो प्यार था सच्चा 
तो तू जब हुई
किसी और की
तो क्यों न झुलसा दिया
तेरा चेहरा तेजाब से
या क्यों न 
कतरा तेरा गला 
छुरे की धार से
या फिर भून क्यों न दिया
बदन को तेरे
पिस्तौल के हर कारतूस से
और मैं मुस्कुरा के कहूँगा
पगली सच्चा प्यार था
तभी तो ये सब न किया गया।


सुमित प्रताप सिंह 


इटावा, नई दिल्ली, भारत 

रविवार, 2 मार्च 2014

कहानी: गौना

माज सेवा का चाव लिए एक दिन कुछ मित्रों के साथ मिलकर हमने भी एक एन.जी.ओ. रजिस्टर्ड करवा लिया. अब हमारे सामने प्रश्न यह था, कि अपने एन.जी.ओ. के द्वारा पहला भला काम क्या किया जाए? हमने यह निश्चय किया कि अपने एन.जी.ओ. की शुरुआत किसी ऐसे भले काम से करेंगे जो वास्तव में भला हो. हमने अपने सभी मित्रों, नाते-रिश्तेदारों को इस विषय में सूचित करके इस बारे में उनकी नेक राय माँगी, लेकिन भले काम के बारे में सुनकर वे राय देने से शायद इसलिए डर गए, कि कहीं उनकी राय के साथ हम उनकी जेब भी ढीली न करवा दें. सो उन्होंने हमें यह राय दी कि फालतू चक्करों में पड़ने के बजाय अपने काम पर ध्यान दें और जीवन जैसा चल रहा है उसे वैसा ही चलने दें. यह एन.जी.ओ. वगैरह चलाना नेताओं और बड़े लोगों काम है और हम मिडिल क्लास वाले इस लायक नहीं हैं, कि एन.जी.ओ. जैसी बड़ी चीज के विषय में सोचें भी. उनकी मिडिल क्लास सोच पर गुस्सा भी आया और हँसी भी. अरे भई अब क्या अच्छा काम करने के लिए भी हाई क्लास या मिडिल क्लास के होने या न होने के बारे में भी सोचना पड़ेगा? 
सब ओर से निराशा मिलने के बाद  हमने फैसला किया कि अब हम स्वयं ही यह निर्णय करेंगे, कि एन.जी.ओ. का शुभारंभ किस भले कार्य से किया जाए. आख़िरकार दो दिन की चर्चा में हमारी मेहनत रंग लाई और हमने अपने एन.जी.ओ. की ओपनिंग के लिए एक भला कार्य चुन लिया. हमने निर्णय लिया कि हम अपने एन.जी.ओ. के द्वारा  किसी गरीब कन्या का विवाह करवाएँगे. हमने अपने खास-खास रिश्तेदारों में इस बारे में विधिवत सूचना भिजवा दी और उन सबसे विनम्र आग्रह किया कि किसी गरीब कन्या की तलाश करें ताकि इस नेक कार्य को करके हमारे एन.जी.ओ. का शुभारंभ हो सके.
अगले दिन ही नाना जी का फोन आया कि उन्होंने एक गरीब कन्या की खोज कर ली है. वह नाना जी के घर के सामने भाड़ भूनने वाले भुज्जी की लड़की थी.  भुज्जी, जिसका नाम संतोष था और गाँव में उसे सब प्यार से संतोषा कहते थे, ने बेटा पाने की लालसा में लड़कियों की कतार लगा दी थी. छः लड़कियाँ होने के पश्चात आखिर उनकी मनोकामना पूर्ण हुई और उसके घर एक बेटा पैदा हुआ. अब संतोषा के घर में बूढ़े माँ-बाप, पत्नी, बच्चों  और स्वयं को जोड़कर एक क्रिकेट टीम तैयार हो चुकी थी, जिसने उसके घर के बजट को क्लीन बोल्ड कर दिया था. वो तो नाना जी के घर में नानी और मामियों के काम में उसकी लड़कियाँ सहायता कर देती थीं और बदले में नाना जी की ओर से उसके घर के गुजारे लायक मदद मिल जाती थी. जब नाना जी को फोन पर गला फाड़ कर हमारी शुभ काम करने की योजना के बारे में संतोषा ने सुना, उसने नाना जी के तब तक पैर नहीं छोड़े जब तक कि उन्होंने इस बात का वादा नहीं कर दिया कि हमारे एन.जी.ओ. का शुभारंभ उसकी बड़ी बेटी के विवाह से ही होगा.
हालाँकि इस बारे में शायद पूरा गाँव ही सुन चुका होगा, क्योंकि नाना जी फोन पर इतनी तेज आवाज में बात करते हैं, कि उनकी बिटिया यानि कि मेरी माँ भी यह अनुभव करने लगती हैं वो अपने दामाद यानि कि मेरे पिता के मुकाबले फोन पर कुछ ज्यादा ही चीखते हुए बतियाते हैं. अब जाने नाना जी के कान में सुनने में कोई दिक्कत है या फिर वो फोन के दूसरी ओर बात कर रहे इंसान को ही बहरा समझते हैं.  
नाना जी ने हमें आदेश दिया कि जल्द से जल्द इस शुभ कार्य को अंजाम किया जाए. हमारी सबसे छोटी मौसी का फोन आया कि वह भी इस शुभ कार्य में हमारे साथ रहेंगी और उनसे बात करने पर पता चल गया कि वो केवल विवाह मंडप पर ही हमारे साथ रहेंगी. मामाओं व मामियों ने भी इस भले कार्य में हमारा पूरा साथ देने का वादा किया. अब यह पता नहीं चल पाया कि वे कितना साथ देंगे. वैसे हमने उनके साथ के प्रकार के बारे में ज्यादा पूछना भी उचित नहीं समझा, क्योंकि हमें लगा कि वे सब मन से भी हमारे साथ रहें तो भी कम से कम कुछ सहारा तो मिलेगा ही.
जहाँ हमारे रिश्तेदार इस कार्य में सहयोग करने को उत्सुक हो रहे थे, वहीं हमारे एन.जी.ओ. के एक सदस्य, जो अपने विचारों से विद्रोही स्वाभाव का था, के प्रभाव में आकर अन्य सदस्य हमारे विरोध पर उतर आए. उन सबने मिलकर तर्क दिया कि एन.जी.ओ. का आरंभ किसी छोटे-मोटे भले कार्य के माध्यम से होना चाहिए न कि ऐसे भारी-भरकम बजट वाले काम से. हम गंभीर सोच में पड़ गए, लेकिन हमारी टीम, जिसमें अब केवल मैं और मेरी माँ ही बचे थे, ने फैसला लिया कि एक बार जिस काम को करने का फैसला कर लिया है तो उसे पूरा करके ही दम लेंगे. एन.जी.ओ. के सदस्यों के अलावा हमें अपने पारिवारिक सदस्यों का विरोध भी झेलना पड़ा. पिता जी और बड़े भाई को जब हमारी योजना के बारे में पता चला तो उन्होंने कहा कि यहाँ क्या अनाप-शनाप पैसा आ रहा जो इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठा ली.
चारों ओर से होनेवाले विरोध से हमारा उत्साह कुछ पल के लिए भंग हो गया, लेकिन शरीर में राजपूती खून ने उबाल मारा और “रघुकुल रीत सदा चलि आई / प्राण जायें पर वचन न जाई” दोहे को दोहराते हुए हमने निर्णय किया कि इस भले कार्य को हम करके ही रहेंगे चाहे कोई बुरा माने या भला. एन.जी.ओ. के बाकी सदस्यों को जब हमारे इस दृढ फैसले के बारे में पता चला तो उन्होंने कोई भी सहायता करने से साफ़ इंकार कर दिया और पिता जी और बड़े भाई से किसी मदद की उम्मीद हमने कभी की ही नहीं थी. हम हमें जो कुछ करना था खुद ही करना था.
माँ ने अपनी बचत पोटली और मैंने अपनी एक्स्ट्रा पे को इस भले कार्य में होम करने का निर्णय किया. अपनी आर्थिक तैयारी के उपरांत हमने नाना जी से संतोषा की बेटी के विवाह के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाने के लिए कहा. नाना जी ने विवाह का मुहूर्त निकलवा कर आदेश दिया, कि विवाह तिथि से एक सप्ताह पहले ही विवाह की तैयारी करवाने के लिए हम उनके घर हाज़िर हो जायें. 
हम माँ और बेटे विवाह की तय तिथि से एक सप्ताह पहले ही  नाना जी की हवेली में पहुँच गए. हमें वहाँ सभी मौसा-मौसियाँ अपने बाल-बच्चों के साथ उपस्थित मिले. पूरे घर में उत्सव सा माहौल था. हमारे लिए उत्सव का माहौल कुछ देर बाद ही मायूसी से भर गया. कारण यह था कि नाना जी ने संतोषा की बेटी के विवाह का जो बजट बनाया था वह मेरी एक्स्ट्रा पे और माँ की बचत से कई गुना अधिक था. हमने नाना जी से हिम्मत जुटाकर यह पूछने की हिम्मत की, कि हम गरीब कन्या का विवाह करने जा रहे हैं या फिर राजसी घराने की किसी लाडली का? यह सुनते ही नाना जी भड़क उठे और बोले कि उन्होंने आस-पास के गाँवों में इस विवाह की घोषणा कर दी है और हम संतोषा की बेटी का विवाह राजपूती आन-बान के साथ किया जाएगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो वो कहीं मुँह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे.
राजपूती आन-बान पर कुर्बान होना अब हमारी विवशता बन गई थी. अब हमारे सामने यक्ष प्रश्न यह था, कि इस लंबे-तगड़े बजट के लिए धन का इंतज़ाम आखिर कैसे किया जाए? पिता जी और भाई से इस बारे में बात करना ओखली में सिर देना होता. एन.जी.ओ. के अन्य सदस्यों से कोई आस थी नहीं. हमें निराश देख हमेशा की तरह माँ की माँ यानि कि मेरी नानी जी ने संकटमोचक की भूमिका निभाई और हमें चुपचाप उधार के तौर पर विवाह में खर्च होनेवाली राशि प्रदान कर दी.
हमने राजपूती परंपरा के अनुसार संतोषा की बेटी के लिए दहेज का सामान ख़रीदा व विवाह हेतु जरूरी सामान का प्रबंध किया. आस-पास गाँवों में इस विवाह के बारे में खबर फैल गई और सभी नाना जी की तारीफों के पुल बाँधने लगे. गाँव वाले इस बात से अनजान थे कि विवाह हम अपने एन.जी.ओ. के अंतर्गत करवा रहे थे. वे तो यह समझ रहे थे कि यह सब नाना जी की कृपा से हो रहा है. हालाँकि ऐसी बात नहीं थी कि नाना जी ने कोई मदद नहीं की. नाना जी के आदेश पर घरातियों व बारातियों के भोजन में खर्च होने के लिए आटा और दाल की बोरियाँ गोदाम से निकाल कर हाज़िर कर दी गईं.
निश्चित दिन व समय पर संतोषा की बेटी का विवाह बड़े धूम-धाम से संपन्न हुआ. आस-पास के गाँवों में रहनेवाले लोग इस विवाह को कौतूहलवश देखने आए और नाना जी की जय-जयकार करते हुए वापस गए. हमने मामा की लड़की को इस विवाह की तस्वीरें खींचने के लिए उसके हाथ में कैमरा देकर नियुक्त कर दिया, ताकि वो तस्वीरें हमारे नवनिर्मित एन.जी.ओ. की ऑडिट रिपोर्ट के काम आ सकें, लेकिन उसका कैमरा अपने दादा के मूछों पर ताव देते हुए अंदाज से दूसरी ओर घूमा ही नहीं. विवाह होने के बाद संतोषा की बेटी को नम आँखों से हम सबने विदा किया. विवाहरुपी शुभ कार्य करने के दो दिन बाद ही हम वापस अपने घररुपी ठिकाने में पहुँच गए.
हम इस आर्थिक झटके से उबरने की कोशिश कर ही रहे थे, कि एक दिन नाना जी का फोन आ गया. घर की खैर-खबर पूछने के बाद उन्होंने बताया, कि उनके पास सुबह संतोषा आया था और पूछ रहा था कि बेटी का गौना करवाने की तारीख कबकी रखी जाए? नाना जी ने कहा, कि जिस प्रकार ठाट-बाट से संतोष की बेटी का विवाह हुआ था, उसी प्रकार गौना भी होना चाहिए वरना इलाके में हाल ही में बनी इज्ज़त मिटटी में मिल जायेगी. फोन रखने के बाद निराश और दुखी हो माँ मेरा और मैं उनका मुँह देखने लगा.  
कुछ देर बाद फिर से फोन की घंटी बजी. दूसरी ओर संतोषा था. वह माँ को प्रणाम करके बोला, “जीजी रचना के गौना की तारीख कब की रखी जाए?”

इतना सुनते ही माँ ने घबराकर फोन काट दिया और हम माँ-बेटे अपना-अपना सिर पकड़कर गहरी सोच में डूब गए.

सुमित प्रताप सिंह

इटावा, नई दिल्ली, भारत 

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