गुरुवार, 5 जनवरी 2012

भोले से डाक बाबू विनोद पाराशर



प्रिय मित्रो

सादर ब्लॉगस्ते!

प्राचीन काल से ही लोगों के संदेश को लाने और ले जाने के लिए विभिन्न प्रकार के उपाय किये जाते रहे हैं. पहले घोड़ों के द्वारा डाक इधर से उधर पहुँचाई जाती थी. प्रेमी अपनी प्रेम पातियों को अपने प्रीतम तक पहुंचाने के लिए कबूतरों का प्रयोग भी करते थे. गुप्त संदेशों को शीघ्रता से भेजने के लिए समय-समय पर बाजों की सहायता भी ली जाती रही. धीरे-धीरे प्रगति हुई और संदेशों को हवाई जहाज में भी उड़ना पड़ा.फिर कंप्यूटर महाराज आये और इन्टरनेट का जाल फैंका और अब पत्रों का स्थान कम्प्यूटरी पत्रों ने ले लिया.किन्तु आज भी पारंपरिक डाक व्यवस्था का महत्त्व कम हुआ है और न ही डाकिया बाबू का.

चलिए आज आपको मिलवाते हैं भोले से डाक बाबू विनोद पाराशर जी से. 1 जुलाई,1961 को उत्तर-प्रदेश जिला-गाजियाबाद के ’सिंगॊली’गांव में जन्मे विनोद पाराशर जी को आठ बहन-भाईयों में सबसे बडा होने का सॊभाग्य मिला है.इस समय सभी बहन-भाई अपनी घर-गृहस्थी में मस्त ऒर यह अपनी में.इनके परिवार में पत्नी ऒर दो बेटे हैं. इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई उत्तर-प्रदेश के ’सिंगॊली’गांव में, स्नातक दिल्ली विश्वविद्यालय तथा स्नातकोत्तर(एम.ए.-हिंदी) कोटा ओपन य़ूनिवर्सिटी(राजस्थान) से. इनकी रूचि अध्ययन, लेखन, सामाजिक कार्यों, व्यंग्यात्मक साहित्य व कवि-सम्मेलनों में सक्रिय भागेदारी में है. आजकल इन पर ब्लागिंग का भूत सवार है. विनोद पाराशर जी भारत सरकार के सूचना एवं प्रॊद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत-’भारतीय डाक विभाग में’कार्यालय सहायक हैं.

सुमित प्रताप सिंह-विनोद पाराशर जी नमस्कार!

विनोद पाराशर-नव-वर्ष की शुभकामनाओं के साथ,मेरा भी नमस्कार!सुमित जी.

सुमित प्रताप सिंह-जी धन्यवाद आपको भी नव आंग्ल वर्ष की शुभकामनाएँ.कुछ प्रश्न लेकर आया हूँ आपके लिए. आशा है आप शीघ्र उत्तर देंगे.

विनोद पाराशर- सुमित भाई! पुरानी कहावत हॆ कि बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी? मुझे उम्मीद थी कि एक न एक दिन तो मुझे भी आपके प्रश्नों का सामना करना पडेगा.इसलिए मैं पहले से ही नहा-धोकर तैयार होकर बैठा हूँ. आप बिना किसी संकोच के,कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं.

सुमित प्रताप सिंह-आपको यह ब्लॉग लेखन की बीमारी कब, कैसे और क्यों लगी?

विनोद पाराशर- सुमित भाई! मिर्जा गालिब का एक शेर है-
"पाल ले कोई रोग नांदा जिंदगी के वास्ते
सिर्फ सेहत के सहारे,यूं जिंदगी कटती नहीं"
तो भाई, चचा गालिब की सलाह मानकर-जिंदगी काटने के वास्ते,हमने यह ’लेखन’ नाम की बीमारी तो,आज से लगभग 28 साल पहले ही पाल ली थी.’ब्लॉग-लेखन’की बीमारी वर्ष-2007 के दौरान लगी.हुआ यूँ कि एक दिन नैट सर्फिंग के दॊरान भटकते-भटकते परिचर्चा सामूहिक मंच पर पहुँच गये.वहाँ पर सद्स्यता लेकर एक-दो कविताएँ हमने भी डाल दीं. लोगों के कमॆन्टस आने शुरु हो गये.वाह! वाह!! होने लगी.अंधा क्या चाहे-दो आँखें.पत्र-पत्रिकाओं में तो रचनाएँ-पहले भी छपती रहीं थी-लेकिन पाठकों की प्रतिक्रिया आने में बहुत समय लगता था.यहां तो ’चट्ट मँगनी और पट्ट ब्याह’ वाली बात है. इधर रचना छपी नहीं, उधर प्रतिक्रिया.यहाँ पर ही,’ब्लॉग लेखन’की इस बीमारी के बारे में पता चला.अपनी’उड़न तश्तरी’ पर सवार, भाई समीरलाल जी जैसे कुछ पुराने मरीजों के सम्पर्क में आने से, इसका वायरस हमारे अंदर भी प्रवेश कर गया.वर्ष-2007 के दौरान ’नया घर’ नाम से ब्लॉग बना डाला.अभी तक इसमें 70-75 कविताएं पोस्ट की जा चुकी हैं. अब तो ऎसा चस्का लग गया हॆ कि कहना पड़ेगा-
’लाश ही जायेगी,एक रोज साकी,
हम तो क्या उठकर जायेंगें,तेरे मयखाने से’
सुमित प्रताप सिंह-आपकी पहली रचना कब और कैसे रची गई?

विनोद पाराशर- बारहवीं कक्षा में ही शेर-शायरी का शॊक लग गया था.जहां भी कोई अच्छा शेर मिलता अपनी डायरी में नोट कर लेता था.पहली रचना कब लिखी गयी-सही-सही तो याद नहीं.शायद 1982 के आस-पास. कॆसे रची गयी?यह भी बता पाना मुश्किल हॆ. किशोरावस्था थी.उसका शीर्षक जरुर याद आ रहा हॆ-’बेदर्द कातिल’.

सुमित प्रताप सिंह-आप लिखते क्यों हैं?

विनोद पाराशर- मैं क्यों लिखता हूँ? इसका जवाब भी मेरे कविता संग्रह 'नया-घर’ की यह पहली कविता है. गौर फरमाइएगा-
जब भी कोई
हंसता,गाता
या रोता हॆ
या फिर
आंखों में नमी भर
परेशान होता हॆ
तब तब मॆं
उसके कंधों के पास पहुंच
उस जॆसा हो जाता हूं
रोता,हंसता या गाता हूं
या फिर
मॆं भी
नम आंखें ऒर
परेशानी का तूफान
हाथों में उठाए
आकाश को कंपकंपाता हूं.
सुमित प्रताप सिंह- लेखन में आपकी प्रिय विधा कौन सी है?

विनोद पाराशर- मैं मूलत:अपने आप को कवि मानता हूं.कवितांए ही ज्यादा लिखी हॆं.कुछ कहानियां,लघुकथाएं,नाटक,लेख भी लिखे हॆं व पत्र पत्रिकाओं के लिए साहित्यिक रिपोर्टिंग भी की हॆ,लेकिन मुझे सबसे ज्यादा आनंद व्यंग्य लेखन में आता हॆ.हास्य-व्यंग्य को सम्पर्पित मेरा एक ब्लाग’हसगुल्ले’के नाम से हॆ.’हास्य-व्यंग्य’को आप मेरी प्रिय विधा कह सकते हॆं.

सुमित प्रताप सिंह-अपनी रचनाओं से समाज को क्या सन्देश देना चाहते हैं?

विनोद पाराशर-आज समाज के हर क्षेत्र में विसंगतियां हॆ.अपनी रचनाओं के माध्यम से इन विसंगतियों की ओर संकेत करके,उन्हें दूर करने के लिए लोगों को प्रेरित कर सकूं.-तो मॆं समझूंगा मेरा लेखन सार्थक हुआ.

सुमित प्रताप सिंह-एक अंतिम प्रश्न. "ब्लॉग पर हिंदी लेखन और राजभाषा हिंदी का भविष्य" इस विषय पर आप अपने कुछ विचार रखेंगे?

विनोद पाराशर- आपका अंतिम प्रश्न आज के परिवेश में बहुत ही महत्वपूर्ण हॆ.पहले मॆं’ब्लाग पर हिंदी लेखन’के बारे में बात करना चाहूंगा.ब्लाग पर हिंदी लेखन की शुरुआत-19 अक्टूबर,2002 को श्री विनय जॆन ने,अपने अंग्रेजी के ब्लाग पर की,लेकिन हिंदी का पहला ब्लाग-नॊ दो ग्यारह के नाम से 21 अप्रॆल,2003 को बनाया गया-जिसका श्रेय श्री आलोक कुमार को जाता हॆ.इस समय हिंदी के ब्लागों की संख्या-25000 से अधिक हॆ,जबकि अंग्रेजी में साढे चार करोड से अधिक ब्लाग हॆं.विश्व की अन्य भाषाओं की तुलना में,हिंदी के ब्लागों की संख्या बेशक काफी कम हॆ,लेकिन संतोष का विषय यह हॆ कि साहित्य के अलावा,विज्ञान,सूचना तकनीक,स्वास्थ्य,राजनीति,संगीत,ज्योतिष इत्यादि विषयों पर भी हिंदी में ब्लाग बनाये जा रहे हॆं.विभिन्न पेशों से जुडें लोग-आज अपने ब्लाग हिंदी में लिख रहे हॆं.यदि हम अंग्रेजी भाषा के अनावश्यक मोह से अपने-आप को बचा सकें,तो आज कोई भी ऎसा विषय नहीं हॆ-जिस पर हिंदी में ब्लाग न लिखा जा सके.
अब में आपके सवाल के दूसरे भाग-यानि’राजभाषा हिंदी का भविष्य’ पर कुछ कहना चाहूंगा.हमारे बहुत से ऎसे ब्लागर मित्र हॆं-जिन्हें यह जानकारी तो हॆ कि अन्य भारतीय भाषाओं में-’हिंदी’ एक मुख्य भारतीय भाषा हॆ.इसे न केवल देश के अधिकतर लोग समझते हॆं, अपितु विश्व की अन्य भाषाओं में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान हॆ.वे’राजभाषा हिंदी’ से पूरी तरह अनभिज्ञ हॆं.’राजभाषा’ का मतलब हॆ राज-काज की भाषा यानि सरकार अपना कार्य जिस भाषा में करेगी वह भाषा.सीधे-सीधे शब्दों में यदि कहा जाये तो’हमारे देश में संवॆधानिक रुप से ’हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हॆ,यह बात अलग हॆ कि हमारी उदासीनता व कुछ स्वार्थी तत्वों के कारण,एक विदेशी भाषा अभी भी व्यवहार में हमारी राजभाषा बनी हुई हॆ. राजभाषा के रुप में’हिंदी’ को न अपनाने का मतलब हॆ,प्रशासन में बेईमानी को बनाये रखना.लोकतंत्र के नाम पर देश की अधिकाश जनता को बेवकूफ बनाना.जिस दिन इस षडयंत्र को लोग समझ जायेगें-उस दिन अवश्य ही राजभाषा हिंदी का भविष्य उज्जवल होगा.इसी मकसद को लेकर मॆंने एक सामूहिक ब्लाग-’राजभाषा विकास मंच’ के नाम से बनाया हॆ.मुझे खुशी हॆ कि मेरे अन्य ब्लागों की अपेक्षा-इसपर सबसे ज्यादा अनुयायी(फोलोवर) हैं.

(विनोद पाराशर जी के द्वारा दिए गए उत्तरों के आगे मैं निरुत्तर हो गया और अपनी पोटली उठाकर अन्य शिकार की खोज में चल पडा.)

विनोद पाराशर जी के अपना घर पर धावा बोलने के लिए पहुँचें http://www.nayagharblogspotcom.blogspot.com/ पर...
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